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Thursday 23 July 2009

कोई तो हो जो इनके उजड़ने का ग़म करे

बदन झुलसाती गर्मी ने जब पसीने से पूरा जिस्म भिगो दिया तो ख़्याल आया चलो जंगल की सैर कर आते हैं कुछ ठंडी हवा लेते हैं ... क़दम ख़ुद बखु़द जंगल की तरफ उठते चले जा रहे थे ... रास्ते भर गर्मी अपना काम करती रही ... पसीना माथे से होकर गले और फिर पूरे बदन पर फैलता जा रहा था ... जंगल पहुंचने की ललक और बढ़ती चली जा रही थी ... बस थोडी़ दूरी मेरे और जंगल के बीच बाकी थी... एक लम्बे वक्त के बाद जंगल में आया था, मैं ... विलायत से लौटने के बाद पहली बार मैं आया था जंगल... हाँ अब बहुत बदला-बदला सा लग रहा था ... बार-बार मेरी नज़र उस जगह जा रही थी जहां वो बूढा बरगद का पेड़ था ... हाँ वहीं जिस के नीचे गांव के बुजुर्ग लोग बैठ कर गांव, शहर और दुनिया के सुलगते मसलों पर घंटों चर्चाएं किया करते थे, वो अमलतास का पेड़ भी नजर नहीं आ रहा था जिस के नीचे कोई ना कोई प्रेमी जोडा़ प्यार के गीत गुनगुनाता मिल जाता...पर अब जंगल बहुत सूना-सूना लग रहा था...मेरा दिमाग इस बात के लिए मुझे कचोके लगाने लगा कि मैं इस प्यारे से जंगल का हाल ऐसा कैसे हुआ, ये जानू.. बदन अब सूख चुका था ... ठंडी हवा ने पसीने का नामो निशान तक मिटा दिया था... अब मैं लौटने के बारे में सोच रहा था ...शाम होने को थी ...घर पर मां अकेली थी ...जल्दी-जल्दी कदम बढा़ते हुए मैं घर पहुंचा ... मां खाने पर मेरा इंतज़ार कर रही थी ... खाने के बाद देर तक मां से बातचीत होती रही...बार-बार जंगल का ज़िक्र करने पर मां बोल पड़ी ... अरे बेटा ये तो कई सालों से हो रहा है...नींद आखों की पलकों पर कब्ज़ा करने के लिए बेताब थी...बहुत दिनो बाद मां की गोद मिली थी...मां की उंगलियां मेरे नर्म बालों में नाच रही थी और नींद का ज़हर मेरी आंखों के रस्ते पूरे बदन में सरायत करती जा रही थी...कब सुबह हुई ये मां की आवाज़ सुनने के बाद पता चला...जंगल की इस हालत के बारे में जानने के लिए मन मचल उठा ..कपड़े पहने और चल पड़ा वन विभाग.... रहना उसी गांव में है तो गांव वालों से दुश्मनी मोल लेने से क्या फायदा...कुछ पेड़ काट ही लेते हैं तो क्या दिक्कत है, जब सरकार इन जंगलों के प्रति इतनी बेपरवाह रहती है तो हम क्या कर सकते हैं –मेरे सवाल पर प्रेमपाल नामी वनपाल ने अपने विचार मुझे सुना दिए...वन विभाग में कई बार आना जाना हुआ था इस लिए कई लोग मुझे पहचानने लगे थे, दूर से आते हुए वनपाल कारु जी को मैं ने नमस्कार किया था, बहुत ख़ुश हुए थे,नमस्कार कहते हुए उन्होंने पूछा और बेटा कैसे हो...ठीक हूँ कह कर मैं ने फिर जंगल की हालत के बारे में बात छेड़ दी...इक आह भरने के बाद उन्होंने कहा क्या बताएं बेटा ... सरकार समय पर पैसा नहीं देती, इसलिए लकड़ियां बेच कर हम अपना पारिश्रमिक निकाल लेते हैं...हजारीबाग के वनपाल की यह बातें मेरे कान के पर्दों से बार-बार टकरा रही थीं... सरकार समय पर पैसा नहीं देती, इसलिए लकड़ियां बेच कर हम अपना पारिश्रमिक निकाल लेते हैं...मैं सोच रहा था शायद जंगल की इस हालत के लिए पूरी सरकार जिम्मेदार है...पर मैं तो व़र्षों बाद विलायत से लौटा था...हालात ने कौन सी करवट ली थी मुझे इस का पता नहीं था ... कुछ लम्हा वनपालों के साथ और बिताया और फिर भारी सर लिए घर की तरफ लौट पड़ा ...गांव कुछ दूर रह गया था ...मैं बोझल कदमों के साथ चला जा रहा था...वैसे मैं किसी की बातें सुनने का शौक़ीन नही था ... मगर दिल कह रहा था ... मजबूर कर रहा था कि रूकूं ... सूनूं ... मैं ने सोचा शायद मेरे कानों को धोका हो रहा है...मगर नहीं ये धोका नही था मैं ने अपने कान खुजला कर दुबारा सुना था...‘खिचड़ी के लिए रोज स्कूल जाती हूं...टिफीन के बाद अगर मन नहीं लगता तो स्कूल से भाग आती हूं... और मां के कामों में हाथ बटांती हूं,... जंगल से लकड़िया लाती हूं’ ये कह रही थी झारखंड की रहने वाली 12 साल की कमला... पहचान में नहीं आ रही थी कुछ ही सालों में कितनी बड़ी लगने लगी थी...मैं अचंभे में नही था क्योंकि सुना था लड़कियां जल्दी बड़ी हो जाती हैं...वह रोज स्कूल जाती है 5वीं में पढ़ती है पर 5 का पहाडा और ककहरा नहीं जानती...उस की ये हालत देख कर मैं जंगल की हालत कुछ हद तक भूल चुका था...ये पूछने पर की शिक्षक दूसरे दिन डांटते नहीं...कहती है, सरकारी स्कूल है इतने बच्चों की भीड़ है कि अगर 4-6 बच्चे गायब भी हो जाएं तो शिक्षकों को पता नहीं चलता और शिक्षकों को रजिस्टर भरने से इतनी फुर्सत ही नहीं मिलती की वे दोबारा हाजिरी ले सकें। कमला कहती है जिस दिन डिप्‍टी साहब लें स्कूल जाती है 5 क्या बताऐ के आने की खबर मिलती है उस दिन शिक्षक पढाई पर जरूर ध्यान देते हैं हाजिरी भी दो-दो बार ली जाती है। लेकिन ये सब ताम झाम बस उसी दिन के लिए होता है। मैं ये सब सुन कर मैं सोच में ड़ूबा घर लौट आया ... देखते ही मां ने कहा बेटा हाथ मुंह धुल लो मैं तुझे कुछ खाने को देती हूँ ... अंदर से कटोरे में कुछ लेकर आ रही थी मां...जब से मैं आया था रोज़ मां नई-नई चीजें मेरी पसंद की मुझे खिला रही थी...आज गाजर का हलवा था...बहुत पसंद था मुझे...खा कर मैं ने मां से कहा मां रास्‍ते में कमला मिली थी...सयानी हो गई है...मगर मां वो अपने स्कूल का जो हाल बता रही थी वो तो बहुत दुखद है...हां बेटा...यहां तो अंधेर नगरी चौपट राजा है...सब दुखद ही है...थोड़ा खामोश रहने के बाद मां कमला के बारे में बताने लगी...कमला अपनी मां के कामों में भी खूब हाथ बटाती है...हाँ, इसी बहाने मजे भी कर लेती है, जंगल में कमला की सहेलियां भी अपने मां के साथ मौजूद होती है...कमला को इन जंगलों में डर भी नहीं लगता...मां कह रही थी पहले कमला की मां इधर आने से मना करती थी...कहती थी भेड़िया लकडबग्घा रहता है पकड़ लेगा पर अब अकेले भी आने से नहीं रोकती...जब कमला की बात करते करते मां ने जंगल की बात की तो मेरा दिमाग फिर जंगल के बारे में सोचने लगा...थोड़ी देर बाद उठा और घर से निकल पड़ा...कमला के घर पहुंचा... उस की मां ने खटिया गिरा कर बैठने के लिए कहा...कुछ देर हाल-चाल के बाद मैं फिर जंगल का जिक्र छेड़ बैठा...कमला की मां कह रही थी पहले जंगल घने थे जानवर रहते थे पर अब जंगल धीरे-धीरे कम हो रहा है, इसलिए जानवर भी कम होते जा रहे हैं...एक सवाल का जवाब देते हुए कमला की मां ने कहा, रोज झाड़ियां काटते हैं जब कभी मौका मिलता है पेड़ भी मिलकर काट के आपस में बांट लेते है...
मैं झारखंड की ऐसी बुरी हालत सुन कर दंग रह गया...जंगलों के पेड़ों के साथ साथ जानवरों का भी सफाया हो रहा है...कोई देखने पूछने वाला नहीं, सरकार बेसुध है। मैं मन ही मन सोच रहा था...फॉरेस्ट ऑफीसर के नीचे काम करने वाले अधिकारियों में एक वनपाल भी होता है, जिसपर एक गांव के कई क्षेत्रों के जंगलों की देखभाल की जिम्मेदारी होती है। इन पदों पर 1980 से पहले बहाल हुए कर्मचारी ही काम कर रहे हैं क्योंकि इसके बाद इस पद के लिए बहाली ही नहीं हुई है। खयालों में चतरा के प्रेमलाल आ गए वो भी एक वनपाल हैं जो इस समय बोकारो के एक गांव में कार्यरत हैं उन्हें एक गांव में मौजूद कई जंगलों की देखभाल करनी पड़ती है मैं गया था वहां भी...पूछने पर की क्या एक साथ कई जंगलो की देखभाल कर लेते हैं कहते रहे थे, पास-पास रहने पर तो कोई दिक्कत नहीं थी पर 10–15 किमी दूर स्थित जंगलों की देखभाल कर पाना मुश्किल है। नए पौधे लगाए जाने के बारे में पूछने पर प्रेमलाल कहते रहे थे पौधे तो तैयार हैं पर, पर्याप्त वर्षा नहीं होने और पानी की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण इन्हें लगाया नहीं जा रहा है। जंगल की इस हालत के बारे में जब गांववालों से बात की तो पता चला कि कई वनपाल तो खुद ही पेड़ काट कर बेच देते हैं और जब ज्यादा पेड़ कट जाते हैं तो गर्मी के दिनों में खुद ही जंगलों में आग लगा कर ये ज्यादा पेड़ों की कटाई को छुपाने की कोशिश करते हैं। पुलिस वाले भी पूछताछ में कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते क्योंकि उन्हें भी खिला पिला दिया जाता है, पेड़ों की कलमी भी ये वनपाल इसी बहाने बेच देते हैं, मैं सोच रहा था जंगलों के ताल्लुक इस ढुलमुल रवय्‍या का असर वनों के साथ-साथ वन्य प्राणियों पर भी पड़ रहा है, कई वन्य जीव अब लुप्त हो चुके हैं क्योंकि इनके शिकार और तस्करी का भी दौर शरू हो चुका है इस से इंकार नहीं किया जा सकता...सरकार भी इस मसले पर आंख मूंदे बैठी है...किसी की किसी के प्रति कोई भी जवाबदेही नहीं है...

6 comments:

"अर्श" said...

BEHAD UMDAA , KAHAANI LEKHAN HI APNE AAPNE BAHOT BADI BAAT HAI... BAHOT BAHOT BADHAAYEE DOST./




ARSH

संगीता पुरी said...

क्‍या कहूं .. सचमुच इस क्षेत्र में बहुत चिंतनीय स्थिति है !!

निर्मला कपिला said...

कहानी बहुत अच्छी है मगर पढते मेरी आँखें दर्द करने लगी इतने बारीक शब्द हम जैसे बूढों को बहुत तकलीफ देते है कहानी इतनी सुन्दर प्रवाह मय थी कि छोडने को ही मन नहीं किया बहुत बहुत बधाई

निर्मला कपिला said...

कहानी बहुत अच्छी है मगर पढते मेरी आँखें दर्द करने लगी इतने बारीक शब्द हम जैसे बूढों को बहुत तकलीफ देते है कहानी इतनी सुन्दर प्रवाह मय थी कि छोडने को ही मन नहीं किया बहुत बहुत बधाई

विनोद कुमार पांडेय said...

is sochniya sthiti par sarkaar aur prashasan ko gaur karane wali baat hai..
sundar vicharon ka sundar samagam..
pahali baar padha ..achcha laga..
bahut badhiya likhate hai aap..

badhayi ho..aise hi likhate rahe..

Anonymous said...

kahani acchi hai...akhir me ek prashn jarur chod gayi hai ki in jungalo ki aisi haalat ka jimmedar kaun hai?.....kahani k liye badhai