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Saturday 4 December 2010

मौसीक़ी की धुनों पर थिरकते लफ़ज़ों का ख़ालिक- इर्शाद कामिल


अक्सर ज़िंदगी में कुछ ऐसा हो जाता है जिसके बारे में आदमी बहुत ज़्यादा सोचे नहीं होता है। चाहत व आरज़ू कुछ होती है और किस्मत कुछ और दिला देती है। हिंदी साहित्य में पीएचडी की डिग्री हासिल करने वाले इर्शाद कामिल ने भी शायद ये नहीं सोचा होगा कि वह बॉलीवुड की फ़िल्मों में गाने लिख कर नाम कमाएंगे, लोगों के दिलों और उनकी धडकनों पर क़ब्जा करेंगे मगर किस्मत को तो यही कुछ मंज़ूर था और इसी लिए जब वह दो हफ्ते के लिए मुम्बई आए तो फिर लगातार सात महीने वहीं रूक गया। और फिर यहां से शुरू होने वाले सफर ने इर्शाद को एक गीतकार बनने का मौका दिला दिया।
इर्शाद कामिल पंजाब में पले बढ़े। 1998 में उन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत टीवी के लिए लिखने से की। ‘ना जाइओ परदेस’ और ‘कहां से कहां तक’ उनके ही क़लम से लिखे गए हैं। मुम्बई में उन्हें सबसे पहला काम मनीश गोस्वामी की कर्तव्य के डाइलॉग लिखने का मिला। उसके बाद पंकज कपूर के सीरियल दृशांत भी इन्हीं का कारनामा है। इनका टीवी जगत में जो हालिया काम है वह है ज़ी पर आने वाले एक नए प्रोग्राम लव मैरेज के डाइलॉग्स। टीवी ही नहीं इर्शाद कामिल ने एक जर्नलिस्ट के तौर पर इंडियन एक्सप्रेस में भी काम किया है। मगर शायद ये उनकी मंज़िलें नहीं थीं, उनकी मंज़िल तो कहीं और थी। उन्हें तो एक गीतकार के रूप में कामयाबी हासिल करनी थी। चमेली फिल्म में पहली बार उन्हें गाने लिखने का मौक़ा मिला और पहली ही फिल्म में उन्होंने ये एहसास दिला दिया कि वह एक बड़े गीतकार के रूप में बॉलीवुड में अपना नाम पैदा करेंगे। इसके बाद उन्होंने जल्द ही उसे साबित भी कर दिया। एक के बाद एक कई फिल्में उन्हें आफर हुईं और वह दबे-दबे, आहिस्ता-आहिस्ता कदमों के साथ अपनी मनज़िल को बढ़ते रहे। सोचा ना था, आहिस्ता-आहिस्ता, शब्द और करम में मिली थोड़ी सी सफलताओं ने उन्हें जब वी मेट जैसी सुपरहिट भी दिला दी। इस फिल्म में इर्शाद कामिल ने ख़ूब नगाड़ा बजाया, और फिर कामयाबी की नित नई मंज़िलें छूते चले गए। लब आज कल ने उन्हें चोर बज़ारी के लिए फिल्म फेयर अवार्ड दिला दिया। अजब प्रेम की गज़ब कहानी ने उनकी मक़बूलियत में चार चांद लगा दिया।
अगर उनके गाने देखे जाएं तो ये अंदाज़ा बहुत आसानी के साथ लगाया जा सकता है कि वह एक कामयाब गीतकार हैं और एक सलाहियत मंद गीत की सारी ख़ासियत उनमें है। उन्हों ने हर तरह के गाने लिखे। हालांकि वह ख़ुद कहते हैं कि प्यार, इक़रार, दिल, धड़कन और जिगर जैसे लफ़्जों के लिए उनकी ड़िक्शनरी में कोई जगह नहीं है। उनका मानना है कि प्यार की परभाषा और इस की हर तस्वीर को इतने गानों में बयान कर दिया गया है कि अब कुछ बचा ही नहीं है। हालांकि उन्होंने अपनी फिल्मों में सब कुछ लिखा है। जहां आओ मीलों चलें ना हो पता जाना कहां, से प्यार और एक अच्छे हमसफर के साथ होने की खुशी को ब्यान किया है वहीं उन्होंने हम जो चलने लगे चलने लगे हैं ये रास्ते जैसा गाना लिख कर नाज़ुक एहसास की अच्छी तर्जुमानी की है। आओगे जब तुम ओ साजना के ज़रिए दूरियों के दर्द को अलफ़ाज़ों का रूप दिया है, ये दूरियां मिट जानी हैं दूरियां जैसे गाने के ज़रिए प्यार के हौसले को मज़बूत किया है। कैसे बताएं क्यों तुझको चाहें और चोर बज़ारी दो नैनों की लिख कर मासूम मुहब्बत की दास्तान बयान करने की कामयाब कोशिश की है। वहीं नगाड़ा बजा, वो यारा ढ़ोल बजाके, टुविस्ट, आहूं आहूं आहूं जैसे सुपर हिट गाने लिख कर लोगों को ड़ांस फलोर पर थिरकने के लिए मजबूर कर दिया है। ज़िन्दगी के नाज़ुक जज़्बातों को भागे रे मन कहीं जानूं किधर जाने ना और ये इश्क हाय जन्नत दिखाए के ज़रिए बयान किया।
इर्शाद कामिल की एक ख़ास बात और है वह ये कि उनके यहां अपने सुनने वालों का पूरा ख़्याल है, वह जानते हैं कि आज कई लोग इंग्लिश के कामन लफ़्ज़ों को आसानी से समझ सकते हैं जबकि अगर ठोस हिंदी या उर्दू के अलफ़ाज इस्तेमाल किए जाएं तो इनका समझना ज़रा मुश्किल है। इसी लिए वह पंजाबी, हिंदी, उर्दू और इंग्लिश शब्दों का बहुत अच्छा इस्तेमाल करते हैं। और यही उनकी कामयाबी का भी राज़ है।
इसमें कोई शक नहीं कि जिस रफ्तार के साथ इर्शाद कामिल तरक्की कर रहे हैं आने वाले दिनों में वह हिन्दुस्तानी फिल्मों के महान गीतकार बनकर उभरेंगे।

Thursday 23 September 2010

आवाज़ें आती हैं....



सन्नाटों को चीर कर
आवाज़ें आती हैं
मत ताको नील गगन के चंदा को
मोती की तरह बिखरे सितारों को
देखो वह दूर परबत से लगे
झोंपड़े पर जहां
टिमटिमा रहा है इक दिया
बुढ़िया दुखयारी ठंड़ से
थर थर कांप रही है !

हां, आवाज़ें आती हैं
बारिश की बूंदों के शोर को दफ्न करके
तुम झूम रहे हो
अंबर का अमृत पी कर
वह दोखो,
फूस का छोटा सा इक घर
भीग गया है इन बौछारों से
और दहक़ां का कुंबा
घर से पानी काछ रहा है

सुनो !
बीत गए वह दिन
जब तुम अपने आप में सिमटे होते थे!!!

(दहक़ां : kisan)

Sunday 29 August 2010

तुम ख़ुशी जो अगर चाहो तो कोई बात बने


धूप बढ़ जाती है हर रोज़ सरे शाम के बाद

तुम ज़रा ज़ुल्फ को लहराओ तो कोई बात बने


मैं तो हर सिम्त से तैय्यार हूं बर्बादी को

तुम मगर लूटने आओ तो कोई बात बने


दिल की हसरत ही ना मिट जाए कहीं मेरे सनम

चांदनी रात में आ जाओ तो कोई बात बने


वैसे हैं चाहने वाले तो बहुत दुनिया में

तुम मगर टूट के चाहो तो कोई बात बने


हम मोहब्बत का नहीं कोई सिला मांगें गे

तुम ख़ुशी जो अगर चाहो तो कोई बात बने


ऐसी तन्हाई है अब के कि ख़त्म होती नहीं

तेरी पाज़ेब छनक जाए तो कोई बात बने

Monday 9 August 2010

जब हम तन्हा तन्हा


तुम्हें कुछ सुनाना चाहता हूं

कुछ बातें, कुछ यादें

उन दिनों की

जब हम मिले नहीं थे

मैं ने तुम को देखा था

दूर सितारों की बज़्म में

चमकता हुआ, बिलकुल चांद जैसे

तुम्हें ढ़ूंढता था मैं

जब हम मिले नहीं थे

फूलों की ख़ुश्बुओं में

सर्दी की गुनगुनाती धूप में

गर्मी की बदन जलाती तेज़ हवाओं में

रिम झिम करती झूम कर आने वाली घटाओं में

मैं तुम्हें ढ़ूंढता था

जब हम मिले नहीं थे

रेतीले सहराओं में

कुहसारों और पहाड़ों में

मैं तुम्हें ढ़ूंढता था

जब हम मिले नहीं थे

दिलकश पाज़ेब की झंकारों में

मस्त आखों के मयखानों में

रेश्मी ज़ुल्फों और उल्झी लटों में

मैं तुम्हें ढ़ूंढता था

जब हम मिले नहीं थे

कोयलों की कू कू में

जंगल की तन्हाईओं में

अपनी सांसों की हरारत में

जलते लबों की प्यास में

मैं तुम्हें तलाश करता था

जब हम मिले नहीं थे

झील में उतरे चांद के अक्स में

क़तरा क़तरा टपकती ओस की बूंदों में

मैं तुम्हें ढ़ूंढता था

जब हम मिले नहीं थे

करवट करवट बदलती ज़िंदगी में

शाम को साथ चलने वाले साए में

मैं तुम्हें तलाश करता था

जब हम तन्हा तन्हा थे

Saturday 24 July 2010

हर शाम तुम्हारी यादों का इक दीप जलाता रहता हूं


हर शाम तुम्हारी यादों का इक दीप जलाता रहता हूं
जो नग़मे तुम ने गाए थे उनको ही गाता रहता हूं
हर आन तुम्हारे मिलने की चाहत सी मचलती रहती है
हर लम्हा तेरी पलकों से सायों की ज़रूरत रहती है
फिर दूर कहीं वीराने में आवाज़ सुनाई देती है
चाहत के इस पागलपन में आवाज़ का पीछा करता हूं
हर शाम तुम्हारी चाहत का इक दीप जलाता रहता हूं

जाड़ों की ठिठुरती रातें हों या कजरारे बरसात के दिन
तुम साथ नहीं हो ऐसे में मैं क्या जानूं सौग़ात के दिन
दिल साथ तुम्हारे रहता है और सांसें चलती रहती हैं
एहसास सताता रहता है और धडकन धडकती रहती है
उम्मीद तड़प कर उठती है तुझे पाने को ज़िद करती है
चाहत के इस पागलपन में जाने क्या क्या करता हूं
हर शाम तुम्हारी यादों का इक दीप जलाता रहता हूं
जो नग़मे तुम ने गाए थे उनको ही गाता रहता हूं

Saturday 17 July 2010

साथ फिर छोड़ गया वक्त का दरया बन कर


लम्हा लम्हा से बदलती हुई दुनिया में
चंद लम्हात की दे करके ख़ुशी छोड़ गया
एक तो वैसे ही ज़ख़्मों की कमी ना थी मुझे
दर्द कुछ अपने मेरे नाम किए, छोड़ गया
**********
वह मिला था मुझे एहसास का जुगनू बन कर
प्यार, इक़रार, वफ़ा, इश्क़ का पैकर बन कर
तुम मेरी जान हो हर ग़म मुझे अपना दे दो
मेरे हर दर्द चुरा लेता था वह इतना कह कर
बिखरी रहती थीं मेरी ज़ुल्फ़ें मेरे शाने पर
चूम लेता था मेरे लब उन्हें सुल्झा कर के
सुब्ह से शाम तलक साथ रहा करता था
और ख़्वाबों में भी आ जाता था दूल्हा बन कर
मेरी आंखों में नए रंग नए ख़्वाब भरे
साथ फिर छोड़ गया वक्त का दरया बन कर

Tuesday 29 June 2010

तुमसा कुछ पाना चाहता हूं....


पाने को तो बहुत कुछ है

पर तुमसा कुछ पाना चाहता हूं

मुस्कुराते हुए लब

मस्ती में डूबी निगाहें

और गालों पर फैली थोड़ी सी लाली

पाने को तो बहुत कुछ है...

एक मुठ्ठी खुशियां

उम्र भर का तुम्हारा साथ

और एक क़तरा कामयाबी

पाने को तो बहुत कुछ है...

आवारा बादलों का एक टुकड़ा

चांद पर छोटा सा आशियां

और ज़िंदगी में बहुत कुछ कर गुज़रने का साहस

पाने को तो बहुत कुछ है

पर तुमसा कुछ पाना चाहता हूं....

Wednesday 19 May 2010

गैर का ख़त मेरे नाम आया है


दफ्अतन तुम पे इक निगाह पड़ी
दिल की दुनिया को हार बैठे हम
ज़िंदगी थी मेरी अमानत--गैर
उसको तुम पर ही हार बैठे हम
####
वक्त रूख़्सत हुआ मोहब्बत का
अब के नफरत का दौर आया है
ज़िंदगी दर्द--दिल को पूजती है
तुम से बिछड़े तो याद आया है
अब के फिर ना मिलें ख़्यालों में
ख़्वाब में रो के हम ने पाया है
दर्द, आंसू, फरेब, दगा
ज़ख़्म अनगिनत तुम से खाया है
फिर वही भूल हो गई उससे
गैर का ख़त मेरे नाम आया है

Wednesday 12 May 2010

मिलन की कोई रात आई ही नहीं


रात तारीकियों का पहरा था
मेरी खिड़की के दोनों दरवाज़े
हवा के तुन्द झोंकों से लड़ रहे थे
चंद जुगनू कभी चमक करके
तीरगी से भरी मेरी कोठरी में
खैरात में रौशनी के चंद टुकड़े उंडेल देते थे
सारी दुनिया थी अपने ख़्वाबों में
मैं तुम्हारे ख़्यालों में जागता ही रहा
वक्त की रफ्तार और दिल की धड़कनों की शिद्दत
आंकने की बेजा कोशिश कर रहा था
ज़ेहन के पुराने दफ्तर से
हर एक याद काग़ज़ पर उतरने को बज़िद थी
बिस्तर की सिलवटें कराह रही थीं
दर्द आंखों के रस्ते गालों को छू रहा था
तुम्हारी बातें कानों के परदे से बराबर टकरा रही थीं
हर याद बस तुम्हारे गीत गाने को कह रही थी
किसी को कुछ पता नहीं था
सब अपनी ही गा रहे थे
हां, वह सब अपनी जगह सही भी थे
महीना भी तो यही था
मई का
हां, यही तारीख भी थी
समां भी कुछ ऐसा ही था
हां, उस वक्त मैं तन्हा नहीं था
तुम्हारी बाहों के घेरे थे
तुम्हारी ज़ल्फों का साया था
तुम्हारे चेहरे की ख़ूबसूरत रौशनी थी
तुम्हारे बदन की ख़ुशबू से
पूरा कमरा भरा हुआ था
हां, ठीक उसी वक्त
हम ने ख़िडकी के बाहर
सितारे को टूटते देखा था
और फिर यक-ब-यक
हम दोनों ने दुआ के लिए हाथ उठा लिए थे
तुम्हें याद है हमने क्या मांगा था
मेरे ख़ुदा, हम कभी जुदा ना हों
मगर उस हसीन रात के बाद
मिलन की कोई रात आई ही नहीं

Thursday 29 April 2010

untitled


इन दिनो कुछ अजीब आलम
प्यार की राह देखती हूं मैं

ज़िंदगी की तलाश में शब भर
चांद तारों से बातें करती हूं

प्यार, इक़रार और वफ़ा हमदम
सबके मानी तलाशती हूं मैं

ज़ेहन में उल्झनों का दफ़्तर है
रात आंखों में काटती हूं मैं

जिसको पाना था उसको पा तो गई
फिर भी तन्हाईयों में जीती हूं मैं

क्यों ये लगता है वह नहीं मेरा
सांस दर सांस जिस पे मरती हूं मैं

वह जो धड़कन में मेरी बसता है
शायद उसके लिए नहीं हूं मैं

Monday 15 February 2010

नज़रें सब कुछ कहती हैं...

कहते हैं कि
नज़रें वह सब कहती हैं जिसे
ज़बान नहीं कह सकती है
उल्फत का इज़हार हो या
फिर दर्द की तस्वीर
नज़र सब कुछ बयां कर देती है
कहते हैं कि
नज़रें वह सब सुन लेती हैं
जो कान नहीं सुन सकते हैं
प्यार का इक़रार हो या
फिर उल्झन की तस्वीर
नज़रें सब कुछ सुन लेती हैं
इसी लिए मैं भी
कुछ दिन से इसी उम्मीद पे हूं
कभी तो सुन लेंगी उसकी नज़रें
मेरी मुहब्बत को मोहतात प्याम
मेरी चाहतों, मेरी उमंगों
मेरे अरमानों मेरी धड़कनों को
कभी तो सुन लेंगी उसकी नज़रें
कभी तो कह देंगी मेरी नज़रें
वह सब कुछ जो मैं
ज़बान से नहीं कह पा रहा हूं

Saturday 30 January 2010

...यतीम हो जाएँगी


दिल तो करता ही
कि तुम्हारी
सियाह ज़ुल्फों तले
सारे सपने
तमाम ख़्वाब
हर आरज़ू और
सारी चाहतें रख कर
सो जाएं
मगर फिर
ख़्याल आता है कि
अगर तुम ने भी
औरों की तरह
इन्हें सहारा ना दिया तो
रूह साथ छोड़ देगी
और फिर
ये सारी मासूम आरज़ुएं
यतीम हो जाएंगी

Wednesday 20 January 2010

वो यादें...

एक लम्बे वक्त से सुबह उठ कर देखता हूं, दो कबूतरों का जोड़ा मेरे कमरे के बाहर लगे पेड़ पर आ कर बैठता है, उस पर लटकी गागर से प्यास बुझाता है, दो चार बूंदें एक दूसरे के परों पर डालते हैं और फिर उड़ जाते हैं...ये रोज़ का खेल है, जैसे उनकी आदत सी हो गई थी...इस बीच मैंने उन्हें बहुत क़रीब से देखा था...उन्हें इठकेलियां करते हुए एक दूसरे को छेड़ते हुए...हां ये भी महसूस किया था कि उनमें से एक कबूतर हमेशा रूठता था और दूसरा उसे अकसर मना लिया करता था, वह उससे ऐसे मुंह फेर कर बैठ जाता था जैसे अब उससे कभी बात ही नहीं करेगा, मगर फिर उसकी इक मुहब्बत भरी नज़र दोनों की नाराज़गी ख़त्म कर देती थी...गले मिलते, बातें करते, छेड़ते और फिर उड़ जाते...इस रूठने मनाने को देख कर मन में एक अजीब सी खुशी महसूस होती थी...सोचता था कितना अच्छा रिश्ता है...कितना प्यार है दोनों के बीच...मगर ये सोच भी मेरे दिमाग के कोने में जन्म लेने लगी थी कि कहीं ऐसा ना हो कि किसी रोज़ इसका रूठना दोनों के रिश्तों में तलख़ियां ना पैदा कर दे और फिर वह किसी मनाने वाला के लिए रोने पर मजबूर हो...बहुत दिनों से दोनों नज़र नहीं आए थे...सोचता था कहीं दूर घूमने निकल गए हों मगर फिर एक दिन सुबह उठा तो देखता हूं वही रूठने वाला कबूतर अकेला पेड़ की टहनियों पर बैठा है... दूसरा कबूतर कहीं नज़र नहीं आ रहा है... और वह तन्हा बैठा आंसू बहा रहा है...क्योंकि शायद अब उसे उन इठखेलियों में मज़ा आने लगा था....

Sunday 10 January 2010

जैसे मां बच्चे को सीने से लगा लाई हो


अब के फिर जाग के रातों की ख़नक देखी है
कितनी सुंदर है वो एहसास की मूरत की तरह
जैसे पाज़ेब किसी ने कहीं छनकाई हो
जैसे मूरत कोई रस्ते पे निकल आई हो
जैसे गुलनाज़ कोई टब से नहा कर निकले
जैसे खुश्बू लिए बाद-ए-सबा आई हो
जैसे जंगल में कोई राग नया छेड़े हो
जैसे बदमस्त कोई साज़ नया छेड़े हो
जैसे कुछ मोर कहीं नाच में मस्त रहें
जैसे कोयल ने कहीं कूक बजाई हो
जैसे दिलदार की पलकों में कोई ख़्वाब पले
जैसे मासूम सी मूरत मेरे घर आई
ऐसे चलती है वो छुप-छुप के सभी से अक्सर
जैसे दोशीज़ा कोई यार से मिल आई हो
चांद भी उसके सदा साथ चला करता है
जैसे बचपन से क़सम उसने यही खाई हो
सब गुनाहों को ये ऐसे छुपा लेती है
जैसे मां बच्चे को सीने से लगा लाई हो

Friday 8 January 2010

सर्द रातों में फटी चादर...


...जब ठंड ने जवां ख़ून को सर्द कर दिया था...शराब का सहारा लेकर गर्मी हासिल करने की कोशिश की जा रही थी...पूरा घर बिजली के कुमकुमों, सुरेले साज़ों और मस्त धुनों पर थिरकती जवानियों से पटा हुआ था...उस वक्त गेट पर बैठा बूढ़ा दरबान तेज़ हवाओं से लड़ रही अपनी फटी चादर में खुद को छुपाने की नाकाम कोशिश कर रहा था...

Sunday 3 January 2010

मुझे मंज़िलों का पता नहीं मेरा कारवां कहीं और है


मेरी हसरतें मेरे साथ हैं मेरी आरज़ू कहीं और है
मुझे रास्ता मेरा मिल गया मेरी मंज़िलें कहीं और हैं

यहां कोई दर्द ना ग़म कोई नई आरज़ू नया जोश है
मेरी ज़िंदगी मेरे साथ चल मेरी धड़कनें कहीं और हैं

मेरी मान मेरे यार तू मुझे रोक ना बीच मोड़ पर
मुझे मंज़िलों का पता नहीं मेरा कारवां कहीं और है

मुझे मत सुना ये कहावतें मेरे हौसलों को ना तोड़ यूं
मेरे साथ मां की दुआएं हैं मेरे ख़्वाब भी कहीं और हैं