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Saturday 30 May 2009

परवीन शाकिर : निसाई जज़्बात की तर्जुमान शायरा


उर्दू अदब की तारीख में बेशुमार चेहरों ने अपनी पहचान बनाई । इस की दिलकशी , चाशनी और जज्बियत ने बहुत सारे लोगों को मसहूर किया । अल्लामा इकबाल से ले कर अहमद फ़राज़ जैसे शायरों तक सभों ने उर्दू ज़बान को फरोग देने की कोशिश की और उर्दू ने उन को वो पहचान दी कि आज भी उन का नाम इज्ज़त वो एहतेराम के साथ लिया जाता है। मर्दों में जहाँ इकबाल , ग़ालिब , मीर ,फिराक और दीगर लोगों ने जहाँ नाम कमाया वहीं औरतों में से परवीन शाकिर ने बेपनाह मकबूलियत हासिल कि। चोटी सी उमर पाने वाली परवीन शाकिर अपने जुदा उस्लूब और अंदाज़ कि वजह से लोगों में आज भी जिंदा हैं। आज भी उन कि शायरी और उन कि नज्मों व ग़ज़लों ने लोगों के जहन वो दिल पर बसेरा डाल रखा है। परवीन शाकिर का आबाई वतन चंदन पट्टी, लहरिया सराय दरभंगा है। उन के पिता साकिब हुसैन शाकिर एक शायर थे। हिंदुस्तान की आज़ादी के बाद जब मुल्‍क तकसीम हुआ तो वो भी पाकिस्‍तान हिजरात कर गए। परवीन शाकिर का जन्‍म पाकिस्‍तान के मशहूर शहर कराची में २४ नवम्‍बर १९५४ में हुआ । ज़बान और अदम में खास लगाव बचपन से था, तालीमी मैदान में अनहूत ने इंगलिश लिटरेचर और ज़बानदानी में स्‍नातक किया और बाद में उन्‍ही मजामीन में कराची यूनिवर्सिटी से एम ए की डिग्री भी हासिल की। परवीन शाकिर ने पी एच दी की डिग्री भी हासिल की और बेंक एडमिनिस्ट्रेशन में भी एक मास्टर डिग्री हासलि की। परवीन शाकिर उस्ताद की हैसियत से दरस वो तदरीस के शोबे से वाबस्ता रहीं और फिर सरकारी मुलाजमत इख्तियार कर ली। सरकारी मुलाजमत इख्तियार करने से पहले ९ साल तक तदरीस के शोबे से मुंसलिक रहीं और १९८६ में कस्टम डिपार्टमेंट , सी बी आर इस्लामाबाद में सेक्रेट्री दोयम के तौर पर अपनी खिदमात अंजाम देने लगीं । १९९० में तेरेंती कालेज से तालीम हासिल की और १९९१ में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से पुब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में मास्टर की डिग्री हासिल की । परवीन की शादी उन के खाला जाद भाई डाक्टर नसीर अली से हुई लेकिन नमवाफिक हालात के सबब उन दोनों के दरमियान ये रिश्ता ज़्यादा देर तक कायम न रह सका और तलाक़ के ज़रिये जुदाई हो गई।
उर्दू की खवातीन शायरात में जहाँ किश्वर नाहिद और फहमीदा रियाज़ ने बेपनाह मकबूलियत हासिल की वहीं परवीन शाकिर ने भी अपने फन का जौहर दिखा कर लोगों के दिलों पर राज करने लगीं । परवीन शाकिर ने अपनी शायरी का सफर तालिब इल्मी के दौरान ही शुरू कर दिया था । पहले वो इर्काफा अज़ीज़ से मशवरा सुखन लेती थीं बाद में अहमद नदीम कासमी से इस्लाहात और मशवरे लेने लगीं । वो अहमद नदीम कासमी को अपना उस्ताद मानती थीं और उन्हें अम्मू के नाम से याद करती थीं। उन की पहली नज़म पाकिस्तान के मशहूर रोजनामा जंग में शाये हुई और उर्दू दुनिया में हलचल पैदा कर दी । उर्दू की मुनफ़रिद लब वो लहजे की शयरा होने की वजह से बहुत ही कम अरसे में उन्हें वो शोहरत हासिल हुई जो बहुत कम लोगों को नसीब होती है । उन की शायरी का असल मौजू मुहब्बत और औरत है। शायद ये पहली खातून शायर हैं जिन्हों ने ख़ुद औरत को अपनी शायरी का मौजू बनाया है। अपनी शायरी में एक ऐसी औरत को पेश किया है जो महबूब से जुदाई के गम सहती है और उस दौरान जो कैफियत होती है उसे परवीन शाकिर ने बहुत ही सुनहरे अंदाज़ में बयां किया है । उर्दू की खवातीन शायरात में परवीन शाकिर को जो मकाम मिला उस की वजह शायद ये भी थी की उन्हों ने औरतों के मख्फी जज़्बात और दर्द को बे बाकि और पूरे इन्साफ के साथ बयान किया। ग़ज़ल की दुनिया में परवीन शाकिर एक अहद आफरीन शायरा बन कर उभरीं थीं । उन्हों ने अपनी निस्वानी आवाज़ और चौंका देने वाले उस्लूब से बिन्ते हव्वा की बेचार्गी और उस की बेबसी को पूरे हौसले के साथ बयान किया।
ये हकीकत है की परवीन शाकिर उर्दू अदब और खास तौर से ग़ज़ल और नज़म की दुनिया में एक अन मिट नुकूश छोड़ने वाला नाम बन कर उभरीं मगर वो एक बेहतरीन बीवी के रूप में कामयाब न हो सकीं । इज्दावाजी ज़िन्दगी की नाखुशी और हालात के अदम -ए-तवाजुन ने उन्हें बहुत सारे तजरुबात बहम पहुंचाए । यही वजह है की परवीन शाकिर की तमाम घज्लोम में निस्वनि़अत की वो चीख छुपी है जो एक गैर मुतमइन रूह से उभरी है। कुछ अशआर मुलाहजा हों
कैसे कह दूँ की मुझे छोड़ दिया है उस ने
बात तो सच्च है मगर बात है रुसवाई की
वो कहीं भी गया लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात भली है मेरे हरजाई की
तमाम लोग अकेले थे राहबर ही न था
बिछड़ने वालों में एक मेरा हमसफ़र ही न था
तुम्हारे शेहर की हर छाओं मेहरबान थी मगर
जहाँ पे धुप कड़ी थी वहां शजर ही न था
अकेले पन , तन्हाई और हिज्र के लम्हात और उस के ग़म को उन्हों ने बहुत ही अच्छे अंदाज़ में बयान किया है एक जगह कहती हैं
रफाकतों का मेरी उस को ध्यान कितना था
ज़मीन ले ली मगर आसमान छोड़ गया
अक़ब में गहरा समुन्दर है सामने जंगल
किस इन्तहा पे मेरा मेहरबान छोड़ गया

महबूब के साथ गुजारे हुए लम्हात और उस वक़्त होने वाले अहसासात और फिर दूरी के हलके दर्द को बयान करने का अंदाज़ बहुत नफीस है। कहती हैं
सुंदर कोमल सपनों की बारात गुज़र गई जानां
धुप आंखों तक आँखों तक आ पहुँची , रात गुज़र गई जानां
लोग न जाने किन रातो की मुरादें माँगा करते है
अपनी रात तो वो जो तेरे साथ गुज़र गई जानां

जुदाई के हालात में करवट बदल बदल कर काटी गई रातों को बयां करते हुए कहती है
चाँद भी मेरी करवटों का गवाह
मेरे बिस्तर की हर शिकन की तरह

परवीन शाकिर ने बलंद ख़यालात को बहुत ही अनोखे उस्लूब में बयां किया । कुछ अशआर मुलाहजा हों नींद जब ख्‍वाबों से प्‍यारी हो तो फ़िर
कब देखे कौन और ख्‍वाबों करे ताबीर कौन
आज भी मुझे सोते में डसने आएगा
वो जानता है की खिलता है मुझपे जहर का रंग
रेल की सीटी में कैसी हिज्र की ताहमीद थी
उस को रुखसत कर के जब लौट तो अंदाजा हु्आ
जुगनू कोदिन के वक्‍त परखने की जिद करें
बच्‍चे हमारे अहद के चालाक हो गए
लड़किया बैठी है पांव डाल के
रौशनी होने लगी तालाब में
परवीन शाकिर वो शायरा थीं जिन्‍होंने ने अपनी शायरी के ज़रिये निस्वानी जज़्बात के साथ साथ ग़ज़ल में की जाने वाले तमाम मौजुआत पर दस्‍तक दी। औरत के दर्द दिल के साथ बारिश मौसम और तन्‍हाई के अयाम को अपनी शायरी का मरकज बनाया । परवीन शाकिर के अशआर की कई किताबें साए हो चुकी हैं । जिन खुशबू, सदबर्ग,खुद कालमी, इनकार और माह-ऐ- तमाम शामिल हैं ।
खुशबू उनका पहला मजमोए कलाम था जो १९७६ में शाय हुआ, इस से उन को बेपनाह मकबूलियत हासिल हुई और उन्होंने पाकिस्‍तान का आदम जी अवार्ड भी हासिल किया । इस के अलावा उन्हें पाकिस्तान के एक बड़े खिताब बेस्‍ट ऑफ से नवाजा गया। परवीन शाकिर ने गजलियात के साथ साथ नज्‍में भी कही, उन की नज्‍में ग़ज़ल से ज़्यादा आजाद थी । उस में उन्हों ने बहुत नाम कमाया, परवीन शाकिर की नज्‍मों की खास बात ये थी की उस में इंगलिश के अल्‍फाज भी इस्‍तेमाल भी करती थी। लेकिन उस का इस्‍तेमाल उन की नज़म को बदसूरत नही बल्कि और निखार देता था । नज़म के अलावा उन्होंने नसर में भी बहुत काम किया ।नसर में उन की एक तसनीफ गोशे चश्‍म के नाम से शाए हुई ।
उर्दू के चाहने वालों की बद‍किस्‍मती ही थी की जब उर्दू का ये सितारा अपनी उचाइंयों पर फख्र करने के लिए और बलंद हो रहा था तभी इस का बुलावा आ गया । पाकिस्तान सिविल सर्विस में नौकरी करने के दौरान 26 दिसम्‍बर १९९४ को कार्यालय के रास्ते में उन की कर एक गाड़ी से टकरा गई जिस हादसे में वो जान बहक हो गईं और अपने चाहने वालों को रोता छोड़ कर अपने मालिक से जा मिलने, मौत के वक्त उन की उमर ४२ साल थी । इस वक्त सिर्फ़ उन के एक बेटे मुराद अली हैं।

Friday 29 May 2009

टूट गई जिंदगी की जंजीर

दुनिया में जो भी आया है उसे जाना जरुर है क्‍योंकि जिंदगी ने कभी किसी के साथ वफा नहीं की है। उसकी हर रग में बेवफाई का जहर भरा हुआ है, हंसी खुशी और तरक्‍की के झलकते जाम में ज़हर देकर मौत की आगोश में पहुंचा देना इसकी फितरत है। वाकई जिंदगी तो बेवफा थी एक दिन ठुकराएगी, मौत महबूबा है अपने साथ लेकर जाएगी रोजाना दुनिया में आने वालों और यहां से रुख़सत होने का सिलसिला लगा हुआ है, ये आने जाने का सिलसिला सदियों से चला आ रहा है मगर कुछ ही लोग हैं जो गुमनाम होकर आते हैं लेकिन ऐसा नाम कमाकर इस दुनिया से जाते हैं कि लोग उनकी सिकंदरी पर फख्र करते है। दरहक़ीकत रोते हुए, आते है सब, हंसता हुआ जो जाएगा, वो मुकद्दर, का सिकंदर, जानेमन कहलाएगा इसमें कोई शक नहीं कि हिंदुस्‍तानी सिनेमा के उफक पर एक चेहरा जो वर्षों से राज कर रहा है व़ह नाम अमिताभ बच्‍चन का है अगर यह कहा जाए कि उन्‍हें इतनी मक़बूलियत और इतना बडा़ नाम देने वाले प्रकाश मेहरा हैं तो बेजा न होगा। जी हां अमिताभ बच्‍चन को ज़मीन से उठा कर आसमान पर पहुंचाने में प्रकाश मेहरा का बहुत बडा़ किरदार है। एक आम से अमिताभ को जब प्रकाश मेहरा की जौहरी निगाहों ने देखा तो उन्‍हें एक कुंदन का रूप दे दिया, एक मामूली अमिताभ को एंग्री यंग मैन खिताब तक पहुंचाने वाले प्रकाश मेहरा आज हमारे बीच नहीं हैं। उनके जाने से फिल्‍मी दुनिया में एक ऐसा खला पैदा हुआ है जो शायद ही कभी पूरा हो। प्रकाश मेहरा मग़रिबी उत्‍तर प्रदेश के बिजनौर शहर में 13 जुलाई 1939 को पैदा हुए। बचपन के अक्‍सर आय्‍याम बरेली में गुजरा। बिजनौर से हाईस्‍कूल तक तालीम हासिल की उसके बाद जिंदगी में कुछ कर गुजरने के अज्‍म ने उन्‍हें देहली पहुंचा दिया। लेकिन मुस्‍तक़बिल की फिक्र, दुनिया में नाम कमाने की चाहत और एक मकबूल इंसान बनने की सोच ने कमसिनी में ही उन्‍हें मायानगरी मुम्‍बई का रुख करने को मजबूर कर दिया।
अक्‍सर ऐसा होता है कि आदमी जो चाहता है वह होता नहीं है, प्रकाश मेहरा भी उन्‍हीं लोगों में से थे। दिल की तमन्‍ना तो यह थी कि हिंदी फिल्‍मों में नगमानिगारी करें, अपने एहसासात और जज्‍बात को अल्‍फाज का रूप देकर लोगों के दिलों पर राज करें मगर कुदरत को तो कुछ और ही मंजूर था। अपनी बेहतरीन और लाजवाब सलाहियतों की वजह से उन्‍होंने एक बेमिसाल हिदायतकार के रुप में अपनी पहचान बनाई। हिंदुस्‍तानी सिनेमा को नई बुलंदिया और सोचने के नए अंदाज दिए। इसके बाद इनकी इस कारकर्दगी ने उन्‍हें हिंदुस्‍तान की फिल्‍मी दुनिया के लिए एक मिसाल और नमूना बना दिया। 1950 में कुछ फिल्‍मसाजों के मआउन के तौर पर अपनी फिल्‍मी जिंदगी की शुरुआत की। उस वक्‍त उन्‍होंने उजाला, जो 1959 में रिलीज हुई और प्रोफेसर, जो 1962 में रिलीज हुई में काम किया। हालात में कुछ तब्‍दीली हुई और 1964 में विश्‍वजीत और वहीदा रहमान को लेकर बनने वाली फिल्‍म के असिस्‍टेंट डाइरेक्‍टर बनकर सामने आए। उसके दो-चार साल बाद तक वह एक आम सी जिंदगी गुजारते रहे। हालात ने करवट बदली और प्रकाश मेहरा खुद फिल्‍मसाजी के मैदान में उतरे। उसके बाद उन्‍होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। कामयाबी की वह तारीख रकम की जिस पर फिल्‍मी दुनिया नाज करेगी। 18 साल तक फिल्‍मी दुनिया में कोई खास मकाम हासिल करने के दौरान होने वाले तजुर्बात उनके काम आए। 1968 में उन्‍होंने बबिता और रिषी कपूर को लेकर हसीना मान जाएगी नाम से फिल्‍म बनाई। इस फिल्‍म में जिस तरह के किरदार उन्‍होंने पेश किए उसे लोगों ने काफी सराहा। इस फिल्‍म के दो गाने कभी रात दिन हम दूर थे और बेखुदी में सनम बहुत ज्‍यादा मकबूल और मशहूर हुए। इस फिल्‍म को लेकर प्रकाश मेहरा की जो सराहना की ग उसने उन्‍हें काफी हौसला बख्‍शा। ये एक ऐसी फिल्‍म थी जिसने प्रकाश मेहरा को लोगों के बीच मक़बूल बना दिया उनका हौसला और जज्‍बा उनके काम आया और उनको उनकी मंजिल दिखाई देने लगी। फिल्‍म जंजीर ने प्रकाश मेहरा की मक़बूलियत में इजाफा किया वहीं अमिताभ बच्‍चन को सुपर स्‍टार बनने के ख्‍वाब दिखलाए। अमिताभ की खुशकिस्‍मती थी कि कुछ बडे़ अदाकारों ने इस फिल्‍म को करने से मना कर दिया और इन्‍हें यह मौका मिला। फिर उन्‍होंने इस मौके का अच्‍छा फायदा उठाया और एंग्री यंग मैन के खिताब से नवाजे गए।
फिल्‍म जंजीर बाक्‍स आफिस पर धूम मचा दी। जंजीर की कामयाबी के बाद मेहरा और अमिताभ की जोडी़ ने फिल्‍म शायकीन को कई हिट फिल्‍में दी। जिसमें मुकद्दर का सिंकदर, लावारिश, शराबी, हेराफेरी और नमक हलाल शामिल हैं। इसके अलावा प्रकाश मेहरा ने अपनी नगमानिगारी की ख्‍वाहिश को तर्क नहीं किया बल्कि अपनी पहली पसंद के तौर पर गीत लिखते रहे। उन्‍होंने कई फिल्‍मों में खूब गाने लिखे हैं। अपनी तो जैसे तैसे, थोडी़ ऐसे या वैसे, कट जाएगी, आपका क्‍या होगा जनाबे आली, दिल तो है दिल दिल का एतबार क्‍या कीजै, इंतहा हो गई इंतजार की, जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है यारों, मंजिले अपनी जगह हैं रास्‍ते अपनी जगह जैसे अनोखे अदब व लिताफात और नग्‍मगी से भरपूर गाने प्रकाश मेहरा की कलम से लिखे गए।
प्रकाश मेहरा फिल्‍मी दुनिया का ऐसा नाम जिन्‍होंने जिस मैदान में कदम रखा उसमें कामयाबी हासिल की। हजारों लोगों के दिलों पर राज किया और जब फिल्‍म प्रोड्यूस करने का मौका आया तो जंजीर और दलाल जैसी फिल्‍मों के ज़रिए काफी नाम कमाया। प्रकाश मेहरा ने जिन फिल्‍मों में हिदायतकारी की है उनमें से कुछ ये हैं- और हसीना मना जाएगी( 1968), मेला (1972), समा‍धी (1972), आन बान(1973), जंजीर (9173), हेराफेरा (1978), मुकद्दर का सिकंदर (1978), देशद्रोही (1981), लावारिश (1982), नमक हलाल(1983), शराबी(1984), जादूगर (1992) ये वो पिल्‍में है जो उनकी क़ाबलियत और सलाहियत की दलील हैं।

Friday 22 May 2009

वो जो हममे तुममे करार था...

गज़ल हमेशा से ही शेरो शायरी और अदब व लिटरेचर की फहम रखने वालों की महबूब सिन्‍फ रही है। महबूब और इश्क व आशिकी की दास्‍ता, उसमें सहे गए दर्द, बहाए गए अश्‍क, करवटों में में काटी गई रातें, सर्द हवाओं में जलती सांसों और महबूब के दीदार की तड़प जिस नुदरत और पुरकशिश अंदाज से गज़ल की जबान में बयान की जाती है वो इसे मकबूल बनाने सबसे अहम किरदार अदा करती है। गज़ल उस वक्‍त दिलों दिमाग पर पूरी तरह हावी होकर इनसान को अपना गिर्वीदा बना लेती है जब कोई दिलकश आवाज़ इस हसीन सिन्‍फ को अपनी पसंद बनाती है और अपनी आवाज को इस तरह से इसके अल्‍फाज वा मायनी के मुताबिक ढाल देती है कि सुनने वाले अपनी चाहने वालों की यादों में खो जाते हैं। अपनी मुतरन्निम आवाज को मौसीकी और सुर ताल का हसीन संगम देते हुए जो लोग गज़ल गायकी को अपना महबूब मशगला बना लेते हैं वो अपने चाहने वालों के दिलों में हमेशा के लिए अमर हो जाते है।
आज जहां गुलाम अली, पंकज उदास, जगजीत सिंह, मेहदी हसन और इनके अलावा भी कई सारे गज़ल गायक हैं जिनकों लोग अपनी पलकों पर बिठाए हुए हैं उसी तरह अगर हम कुछ पहले देखें तो ऐसे बहुत सारे नाम आएंगे जिनकों अगर आज के गज़ल गुलूकारों का उस्‍ताद कहा जाए तो बेजा न होगा। जहां नूरजहा बानों ने गज़ल गायकी को एक नई पहचान दी वहीं बेगम अख्‍तर ने अपने फन का जादू चलाया और अपनी वफात के तकरीबन 34 साल बाद भी अपने चाहने वालों के दिलों में जिंदा हैं।
बेगम अख्‍तर उत्‍तर प्रदेश के मशहूर शहर फैजाबाद में सात अक्‍टूबर सन 1914 में पैदा हुई थी उनका पैदाइशी नाम अख्‍तरी बाई फैजाबादी था। मगर वो बेगम अख्‍तर के नाम से मशहूर हुई। अख्‍तरी बाई फैजाबाद के एक आला खानदान से ताल्‍लुक रखती थी।जिसका म्‍यूजिक और मौसिकी से कोई लगाव नहीं था मगर अख्‍तरी बाई ने अपनी नौउम्री में ही मौसिकी से अपने दिली लगाव का इजहार कर दिया था जिसके बाद उन्‍हें इसमैदान में कुछ सीखने के लिए बड़े-बड़े माहिरी के पास भेजा गया। सबसे पहले उन्‍हें कोलकाता की सैर कराई गई जहां उन्‍होंने मशहूर सारंगी के उस्‍ताद इमाद खान से जिंदगी में मौसिकी की दुनिया में कुछ करने की तालीम हासिल की इसके बाद उन्‍होंने क्‍लासिकल म्‍यूजिक की तालीम अपने वक्‍त के माहिरीन जैसे मोहम्‍मद खान, अब्‍दुल वहीद खान और उस्‍ताद झंडे़ खान साहब वगैरह से हासिल की ।
उनकों पहली बार पब्लिक परफारमेंस करने का मौका 15 साल की उम्र में मिला और उस वक्‍त उन्‍होंने अपनी आवाज का ऐसा जादू जगाया कि लोगों ने उन्‍हें हाथों हाथ कुबूल किया। उसके बाद उन्‍हें बेपनाह मकबूलियत हासिल हो गई। बुलबुले हिंद के नाम मशहूर सरोजनी नायडू उनकी गज़ल से बहुत खुश हुई थी। जो उनकी कामयाबी की एक बहुत बडी़ दलील है।उनकी पहली रिकॉर्डिंग मेगाफोन कम्‍पनी के जरिए सन 1930 में हुई थी। उस वक्‍त उनकी मधुर और दिलकश गज़लों, ठुमरी और दादरी के अलावा और भी किस्‍में रिलीज की थी। बेगम अख्‍तर को फिल्मों में काम करने का मौका मिला। ईस्‍ट इंडिया फिल्म कम्‍पनी ऑफ कलकत्‍ता ने उन्‍हें सन 1933 में किंग फॉर ए डे और नील दमयंती फिल्म में काम करने का मौका दिया। इसके बाद उन्‍होंने फिल्मों में एक्टिंग करना जारी रखा।बेगम अख्‍तर ने अमीना 1934, मुमताज बेगम 1935, जमाने नशा 1935 और नसीब का चक्‍कर 1935 में अदाकारी की। इसके साथ ही उन्‍होंने इन तमाम फिल्मों में अपने सारे गाने खुद ही गाए।
इसके बाद बेगम अख्‍तर डायरेक्‍टर महबूब खान की फिल्म रोटी की शूटिंग के लिए लखनऊ चली आईं। इस फिल्म के छह गाने उन्‍होंने ही गाए यह फिल्म 1942 में रिलीज हुई लेकिन डायरेक्‍टर और प्रोड्यूसर के दरमियान आए कुछ तनाव की बिना पर इसके चार गाने खत्‍म कर दिए गए थे। मगर इस फिल्म से उन्‍हें बहुत मकबूलित हासिल हुई और वह मद्दाहों के दिलों पर राज करने लगी। उनकी मुतरन्निम आवाज में लोगों के कानों में ऐसे रस घोले कि लोग उन्‍हें मलिकाए तरंनुम के नाम से पुकारने लगे। वह महफिल जहां बेगम अख्‍तर का जाना होता था लोगों की भीड़ उनकों दाद देने के लिए उमड़ पड़ती थी। उन्‍होंने आखिरी बार सत्‍यजीत राय की बंगाली फिल्म जलशा घर में काम किया। इसमें उन्‍होंने एक क्‍लासिकल सिंगर का किरदार अदा किया था।
जिंदगी हमेंशा एक ही रफ्‍तार से नहीं चलती जब बेगम अख्‍तर ने 1945 में बैरिस्‍टर इश्तियाक अहमद से शादी की तो उसके बाद खानदानी असबाब ने उन्‍हें संगीत की दुनिया से दूर कर दिया। अपने महबूब फन से दूर कर दिया जाना उन्‍हें रास नहीं आया। वह खुद को बीमार महसूस करने लगी। हकीमों की दवाइयां भी बेअसर रही। बाद में उनका गायकी का फन ही उनके काम आया वाकई जिसका दर्द और दवा दोनों ही संगीत हो तो फिर उसे उससे कैसे दूर रखा जा सकता है। बेगम अख्‍तर ने एक बार फिर 1949 में अपने मद्दाहों के शिकस्‍ता दिलों पर दस्‍तक दी। संगीत की दुनिया में दोबारा क़दम रखने के बाद उन्‍होंने लखनउ के ऑल इंडिया रेडियो से तीन ऐसी मधुर मीठी गज़लें और एक दादरा पेश किया जिन्‍होंने उनके शायकीन के दिलों को मोह लिया और एक बार फिर बेगम अख्‍तर अपने पूरे आबों ताब से संगीत की दुनिया और संगीत प्रेमियों के दिलों पर छा गई।
मशहूर म्‍यूजिक डायरेक्‍टर मदन मोहन ने उन्‍हें अपनी दो फिल्‍मों दाना पानी 1953 और एहसान 1954 में गाने का मौका दिया। उन्‍होंने अपने फन का ऐसा इस्‍तेमाल किया कि लोग उन्‍हें दाद देने पर मजबूर हो गए। ये दोनों फिल्‍में उस वक्‍त बहुत बडी़ हिट साबित हुईं। इसके दो गानों ऐ इश्‍क मुझे और तो कुछ याद और हमे दिल में बसा भी लो ने उन्‍हें बहुत शोहरत दिलाई और उनकी दिलकश व पुरकशिश आवाज की बिना पर उन्‍हें मलिकाए गज़ल के खिताब से नवाजा गया। बेगम अख्‍तर को लोगों ने जिन चाहतों से नवाजा वह उनका हक भी था। वक्‍त के साथ-साथ में मजीद सूज और गहराई पैदा हो गई थी जिसने उन्‍हें आज तक के लिए अमर कर दिया। बेगम अख्‍तर ने अपना आखिरी परफॉरमेंस अहमदाबाद में पेश किया। उसके बाद उनकी सेहत खराब रहने लगी और फिऱ संगीत की दुनिया का यह सूरज 30 अक्‍टूबर 1974 को अपने हजारों चाहने वालों को रोता हुआ छोड़कर उस दुनिया को सिधार गया जहां जाने के बाद कोई वापस नहीं आता।
बेगम अख्‍तर ने अदाकारी की, थियेटर भी किया, ठुमरी और दादरा भी गाया मगर गज़ल गायकी में उन्‍हें जो मकाम दिया वो किसी और से हासिल नहीं हो सका। इसके सबसे अहम वजह उनकी सुरीली आवाज थी। जो उनके मद्दाहों को गज़ल का हर लफ्‍ज महसूस करने पर मजबूर कर देती थी। उन्‍होंने उर्दू के मशहूर शायरों के कलाम को अपने मुतरन्निम आवाज के लिए इस्‍तेमाल किया। वो जो हममे तुममे करार था, न सोचा न समझा, दिवाना बनाना है तो, उज्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं, ये न थी हमारी किस्‍मत कि विसाले यार होता, राहे आशिकी के मारे, इतना तो जिंदगी में, कुछ तो दुनिया की, इश्‍क में गैरते जज्‍बात, लाई हयात आए कजा, गुल फेंके हैं गैरों की तरफ और इसके अलावा बेशुमार गज़ले उनकी गायकी की जी़नत बनी जो आज भी गज़ल शायकीन के कानों में रस घोलती रहती हैं।

Saturday 9 May 2009

... ye badi bewafaa hai

...ye badi bewafaa hai. hazaron chahne waloon ke dilon ke dard ,un ke aansu,un ki aahoon aur un ke siskion ki is ke yahan koi auqaat nahi. her koi us ki zulfoon se khelna chata hai us ki qurbatein har kisi ka khawab hain us ki muskurahtoon per sabhi sau sau janam qurban kerne ke liye betaab baithe hain . Darhaqeeqat ye aisi hai bhi ki us ke liye koi bhi dewaana ban jaye magar kitni ajeeb hai Ye bhi kisi ek jagah jaise use skoon nahi milta hai .Ye harjai kabhi kisi ki bahoon mein jhoola jholti hai to kabhi kisi ke saath angdaiyaan leti hai. magar deewana to use ki chah mein subah se le ker sham tak dar dar bhatakta rahta hai. ye badi bewafaa hai.is liye...to us ke peeche na pad, ye tujhe khatm ker de gi, is ki rag rag mein bewafaai ka khoon bhara hai.is ne apni kokh se bahut sare logon ko janam diya aur phir ek muddat ke baad maut ka jaam le kar hazir hui aur lakh israr ke bawjood bhi bewafaai ka daaman hath se nahi chodti unhein be wafaai ki dabeez chadar udha deti hai aur zindagi ke chalaktey jaam ko maut ke sakit pyaale mein dal deti hai. muskratey chehroon par gam-o-alam ka pahad tod diya, khiley huye pholon ko bedardi se masal diya, aarzoon aur tamnnaoon ke shesh mahal ko chakna choor ker deti hai. aur ye hamesha se ker rahi hai aur kerti rahe gi ye kab kisi ke saath wafa ker sakti hai.is ki to har saans bewafaai ke naam hai. is liye is DUNIYA se hoshyaar rahne ki zaroorat hai. SAHIR LUDHYANAWI ne isi DUNIYA ko bahut achche andaaz mein bayan kiya hai.


Ye mahalon, ye takthon, ye taajon ki duniyaa
Ye inasaan ke dushman samaajon ki duniyaa
Ye daulat ke bhuukhe rivaazon ki duniyaa
Ye duniyaa agar mil bhii jaaye to kyaa hai

Har ek jism ghaayal, har ek ruh pyaasi
Nigaahon mein uljhan, dilon mein udaasi
Yeh duniyaa hai yaa aalam-e-badhavaasi
yeh duniyaa …

Jahaan ek khilonaa hai inasaan ki hasti
Ye basti hai murdaa-paraston ki basti
Jahaan aur jivan se hai maut sasti
yeh duniyaa …

Javaani bhatakti hai bezaar bankar
Javaan jism sajate hai baazaar bankar
Jahaan pyaar hotaa hai vyaapaar bankar
ye duniyaa …

Yeh duniyaa jahaan aadami kuchh nahin hai
Vafaa kuchh nahin, dosti kuchh nahin hai
Jahaan pyaar ki kadr hi kuchh nahin hai
ye duniyaa …

Jalaa do, jalaa do ise phoonk daalo
ye duniyaaMere saamne se hataa lo
ye duniyaaTumhaari hai tumhi sambhalo
ye duniya, ye duniyaa