Thursday 31 December 2009
नया साल मुबारक हो
ख़ुदा करे कि ये नया साल
तेरे दामन में
वह सारे फूल खिला दे
कि जिनकी ख़ुश्बू ने
तेरे ख़्याल में
शमऐं जलाए रखी हैं
तो नए साल पर अपने हौसले बलंद कीजिए...हर बुराई से टकराने का मन बनाईए और किसी ग़लत चीज़ से समझौता ना कीजिए...फैज़ की इस नज़म से पोस्ट ख़त्म कर रहा हूं
बोल, कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल, ज़ुबां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल कि जान अब तक तेरी है
देख की आहन-गर की दुकान में
तुन्द हैं शो'ले, सुर्ख है आहन
खुलने लगे कुफ्लों के दहाने
फैला हर एक ज़ंजीर का दामन
बोल, यह थोड़ा वक़्त बोहत है
जिस्म-ओ-जुबां की मौत से पहले
बोल की सच ज़िंदा है अब तक
बोल, जो कुछ कहना है कह ले
Friday 18 December 2009
रात को ही क्यों...
मगर ये तो शायद उस वक्त की बात है जब हमारा जन्म भी नहीं हुआ था, हां शायद लैला मजनू और शीरीं फरहाद के ज़माने तक ही ये हालात रहे थे क्योंकि जब से हम इस दुनिया में आए हैं हमें तो कुछ और ही तजरूबा हुआ है। जैसे ही शाम का वक्त होता है, सूरज अपने बिस्तर समेटना शुरू करता है और सलेटी मायल सुर्ख आसमान के किनारे बहुत नीचे ढलान पर आफताब लुढ़कने लगता है तो कभी अम्मी आवाज़ देना शुरू कर देती हैं बेटा रात हो रही है कहीं मत जाओ, कभी बहन बाहर ना निकलने का मशवरा देती है तो कभी पापा घर पर ही रहने का फरमान सुना जाते हैं।
बच्पन से लेकर आज तक यही आलम है। दादी की अकसर कहानियों में जहां भी रात का ज़िक्र आता उसे सुनने में बहुत मज़ा आता था। रात की तारीकियों से जुड़ी कहानियां हमारी मुहब्बत बन चुकी थी।
एक बात हमारे दिमाग को हमेशा उलझाए रखती है कि आखिर ऐसा क्या था कि दादी तो इतनी अच्छी कहानियां सुनाती थीं और मां बाप हर बार रात से डराते ही रहते थे। समझ की उम्र को पहुंचने के बाद से ही इस पर गौर करने का दिल करने लगा। मुझे 'रात' की फितरत और उसके स्वभाव को समझने का चसका लग गया है। क्योंकि कहानियों के अलावा अगर मैंने हक़ीकत में अपने कानों से रात के मुतअल्लिक कुछ सुना तो यही मालूम हुआ कि 'रात' बुराईओं को जन्म देती है, हर दिन रात के बारे में नया तजरूबा होता है कभी कानों से आवाज़ टकराती है कि अंधेरा छाने लगा है, रात आने को है अपने घरों को चले जाओ तो कभी रात के सन्नाटों का खौफ़ दिला कर घरों में रहने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। खौफ़ और बुराईओं के लिए हमेशा से ही मैं ने रात को जाना है। मैं ने हमेशा यही पाया कि शायद रात ख़ौफ़, परेशानी, बुराई और ख़राबी की जड़ है। मैं ने इसके लिए ख़ुद तजरूबा किया। रात को उठ कर उस वक्त सुनसान रोड पर चला जब सारी दुनिया नींद की आग़ोश में खर्राटे लेती है, मगर क्या हुआ, मैं ने हर रात या तो ये महसूस किया कि किसी की चीख़ें मुझे आवाज़ दे रही हैं या कोई मदद के लिए गुहार लगा रहा नहीं तो किसी की हयात दम तोड़ रही है या फिर किसी की नब्ज़ उसका साथ छोड़ रही है और वह अपनी उखड़ी उखड़ी सांसों के साथ अलविदा कह रहा है।
ये सब देख कर मझे ये कुछ कुछ समझ आने लगा था कि आख़िर हमारे मां बाप हम्हें रात से क्यों डराते थे। शायद अब ज़माना बदल चुका था अब वह वक्त नहीं रह गया था जब रात भी दिन की तरह होता था जिसमें ना तो कोई ख़ौफ़ था और ना ही कोई डर। मगर आज कत्ल, ख़ून और दूसरी खतरनाक चीज़ें अंजाम देने के लिए रात का इस्तेमाल किया जाता था। मगर अब मुझे ये चीज़ खटकने लगी है कि आख़िर रात ही से क्यों डराया जा रहा है, दिन से क्यों नहीं? आख़िर वह कौन सा काम है जो अब दिन में नहीं होता? अब रात का इंतज़ार कौन करता है अब दिन में वह सब कुछ हो जाता है जिसे रात के काले साऐ में करने से आदमी डरता है तो फिर सिर्फ रात ही को क्यों बदनाम किया जाता है?
Thursday 10 December 2009
एक नज़्म
उनको देखे हुए इक ज़माना हुआ
लोग कहते हैं हम उनके दीवाने हैं
वो शमा और हम उनके परवाने हैं
प्यार उनके लिए मेरी आंखों में है
मेरा दिल मेरी जान उनकी सांसों में है
वह संवरती थी हम को दिखाने की ख़ातिर
ऐसे चलती थी हम को लुभाने की खातिर
उसकी ज़ुल्फें थी मुझको सुलाने की ख़ातिर
उसकी आंखें थीं मुझको पिलाने की ख़ातिर
जिस्म उनका था बस मेरी बाहों की ख़ातिर
प्यार उसको मेरी हर अदाओं से था
2
मैंने ऐसा सुना तो अचंभा हुआ
मैंने सोचा की ये भूल कैसे हुई
कि
प्यार अपना सभों की नज़र में रहा
बस हम्हें इसकी कोई ख़बर न हुई
३
ये अलग बात हम भी शायद उसके दीवाने थे
प्यार हमको भी था और उसको भी था
पर हवस की कोई भी निशानी ना थी
लेकिन
दुनिया उसको कुछ और रूप देती रही
४
मैं ने देखा ख़ता इसमें मेरी ना थी
सारी दुनिया नशे में उसके मख़मूर थी
सब पे उसके ही जलवों की परछाईं थी
याद करना उसे उनकी मजबूरी थी
शायद वो उनके ख़्वाबों की ताबीर थी
नाम मेरा लिया, दिल को ठंड़ा किया
याद उसको किया, रूसवा मुझको किया
Sunday 6 December 2009
छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे…
6 दिसम्बर 1992 को जो घटना बाबरी मस्जिद की शहादत के रूप में हुई उसने ना सिर्फ हिंदुस्तानी तहज़ीब का ख़ून किया बल्कि भारतीय संमिधान का भी जनाज़ा निकाल दिया था। इस घटना ने जहां हर दिल को रोने पर मजबूर कर दिया था वहीं यह भी सोचने पर मजबूर कर दिया था कि आख़िर क्या अब यहां जम्हूरियत का कोई मुहाफिज़ नहीं है या फिर क्या अब हिंदुस्तानी लोग सेकियुलरिज़म से उकता चुके हैं?
आज उसकी 17वीं बरसी पर मैं अपने गमों का इजहार करता हूं साथ ही मैं आप की ख़िदमत में मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की मशहूर नज़म दूसरा बनवास पेश कर रहा हूं
छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे…
राम बनवास से जब लौट के घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक्से दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसंबर को श्री राम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आये?
जगमगाते थे जहां राम के क़दमों के निशां
प्यार की कहकशां लेती थी अंगड़ाई जहां
मोड़ नफरत के उसी राहगुज़र में आये
धरम क्या उनका है, क्या जात है, यह जानता कौन?
घर न जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा, लोग जो घर में आये
शाकाहारी है मेरे दोस्त, तुम्हारा खंजर
तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की खता ज़ख्म जो सर में आये
पांव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
के नज़र आये वहां खून के गहरे धब्बे
पांव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम यह कहते हुए अपने द्वारे से उठे
राजधानी की फ़िज़ा आयी नहीं रास मुझे
छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे।
Wednesday 2 December 2009
मैं तुम बिन अधूरी हूं
मुसलसल ख़्वाब आते हैं
अपने घर आराम करने जा रहा है
कोई पागल , दीवानी
बाल खोले, नन्गे क़दम, दीवानावार
तपती रेत पर सरपट भाग रही है
दुपट्टा उसके सर से होता हुआ
कांधे पर आ कर लटक गया है
उसकी बालियां कानों में झूला झूल रही है
उसके होंट प्यास से सूख गए हैं
उनकी सुर्खी कहीं गायब हो गई है
रेशमी ज़ुल्फों पर धूल की तह जम रही है
आंखों में रेत के हज़ारों ज़र्रे गड़ रहे हैं
रूखसारों पर आंसू के कतरों और
रेत के टुक्डों ने ज़ख्म का सा निशान बना दिया है
वह एक हाथ आगे बढ़ाए हुए है
ऐसा लग रहा है किसी को रोकने की कोशिश कर रही है
मुंह खुला हुआ है
ज़रा क़रीब जा के देखा
शक्ल और साफ हो गई
मगर
अब कुछ आवाज़ें भी सुनाई दे रही थी
‘‘सुनो साजन
तुम मत जाओ
मैं तुम से कुछ नहीं मांगूंगी
सुनो
लौट आओ
अब मुझे चूड़ी, कंगन
मेंहदी, बिंदिया
अफशां, लाली
कुछ नहीं चाहिए
सुनो
बस तुम लौट आओ
मैं तुम से कुछ नहीं मांगूंगी
सुनो साजन
मेरा हर सिंगार तुम हो
और मैं तुम बिन अधूरी हूं ’’