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Saturday 24 July 2010

हर शाम तुम्हारी यादों का इक दीप जलाता रहता हूं


हर शाम तुम्हारी यादों का इक दीप जलाता रहता हूं
जो नग़मे तुम ने गाए थे उनको ही गाता रहता हूं
हर आन तुम्हारे मिलने की चाहत सी मचलती रहती है
हर लम्हा तेरी पलकों से सायों की ज़रूरत रहती है
फिर दूर कहीं वीराने में आवाज़ सुनाई देती है
चाहत के इस पागलपन में आवाज़ का पीछा करता हूं
हर शाम तुम्हारी चाहत का इक दीप जलाता रहता हूं

जाड़ों की ठिठुरती रातें हों या कजरारे बरसात के दिन
तुम साथ नहीं हो ऐसे में मैं क्या जानूं सौग़ात के दिन
दिल साथ तुम्हारे रहता है और सांसें चलती रहती हैं
एहसास सताता रहता है और धडकन धडकती रहती है
उम्मीद तड़प कर उठती है तुझे पाने को ज़िद करती है
चाहत के इस पागलपन में जाने क्या क्या करता हूं
हर शाम तुम्हारी यादों का इक दीप जलाता रहता हूं
जो नग़मे तुम ने गाए थे उनको ही गाता रहता हूं

Saturday 17 July 2010

साथ फिर छोड़ गया वक्त का दरया बन कर


लम्हा लम्हा से बदलती हुई दुनिया में
चंद लम्हात की दे करके ख़ुशी छोड़ गया
एक तो वैसे ही ज़ख़्मों की कमी ना थी मुझे
दर्द कुछ अपने मेरे नाम किए, छोड़ गया
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वह मिला था मुझे एहसास का जुगनू बन कर
प्यार, इक़रार, वफ़ा, इश्क़ का पैकर बन कर
तुम मेरी जान हो हर ग़म मुझे अपना दे दो
मेरे हर दर्द चुरा लेता था वह इतना कह कर
बिखरी रहती थीं मेरी ज़ुल्फ़ें मेरे शाने पर
चूम लेता था मेरे लब उन्हें सुल्झा कर के
सुब्ह से शाम तलक साथ रहा करता था
और ख़्वाबों में भी आ जाता था दूल्हा बन कर
मेरी आंखों में नए रंग नए ख़्वाब भरे
साथ फिर छोड़ गया वक्त का दरया बन कर