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Sunday 29 August 2010

तुम ख़ुशी जो अगर चाहो तो कोई बात बने


धूप बढ़ जाती है हर रोज़ सरे शाम के बाद

तुम ज़रा ज़ुल्फ को लहराओ तो कोई बात बने


मैं तो हर सिम्त से तैय्यार हूं बर्बादी को

तुम मगर लूटने आओ तो कोई बात बने


दिल की हसरत ही ना मिट जाए कहीं मेरे सनम

चांदनी रात में आ जाओ तो कोई बात बने


वैसे हैं चाहने वाले तो बहुत दुनिया में

तुम मगर टूट के चाहो तो कोई बात बने


हम मोहब्बत का नहीं कोई सिला मांगें गे

तुम ख़ुशी जो अगर चाहो तो कोई बात बने


ऐसी तन्हाई है अब के कि ख़त्म होती नहीं

तेरी पाज़ेब छनक जाए तो कोई बात बने

Monday 9 August 2010

जब हम तन्हा तन्हा


तुम्हें कुछ सुनाना चाहता हूं

कुछ बातें, कुछ यादें

उन दिनों की

जब हम मिले नहीं थे

मैं ने तुम को देखा था

दूर सितारों की बज़्म में

चमकता हुआ, बिलकुल चांद जैसे

तुम्हें ढ़ूंढता था मैं

जब हम मिले नहीं थे

फूलों की ख़ुश्बुओं में

सर्दी की गुनगुनाती धूप में

गर्मी की बदन जलाती तेज़ हवाओं में

रिम झिम करती झूम कर आने वाली घटाओं में

मैं तुम्हें ढ़ूंढता था

जब हम मिले नहीं थे

रेतीले सहराओं में

कुहसारों और पहाड़ों में

मैं तुम्हें ढ़ूंढता था

जब हम मिले नहीं थे

दिलकश पाज़ेब की झंकारों में

मस्त आखों के मयखानों में

रेश्मी ज़ुल्फों और उल्झी लटों में

मैं तुम्हें ढ़ूंढता था

जब हम मिले नहीं थे

कोयलों की कू कू में

जंगल की तन्हाईओं में

अपनी सांसों की हरारत में

जलते लबों की प्यास में

मैं तुम्हें तलाश करता था

जब हम मिले नहीं थे

झील में उतरे चांद के अक्स में

क़तरा क़तरा टपकती ओस की बूंदों में

मैं तुम्हें ढ़ूंढता था

जब हम मिले नहीं थे

करवट करवट बदलती ज़िंदगी में

शाम को साथ चलने वाले साए में

मैं तुम्हें तलाश करता था

जब हम तन्हा तन्हा थे