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Wednesday 19 May 2010

गैर का ख़त मेरे नाम आया है


दफ्अतन तुम पे इक निगाह पड़ी
दिल की दुनिया को हार बैठे हम
ज़िंदगी थी मेरी अमानत--गैर
उसको तुम पर ही हार बैठे हम
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वक्त रूख़्सत हुआ मोहब्बत का
अब के नफरत का दौर आया है
ज़िंदगी दर्द--दिल को पूजती है
तुम से बिछड़े तो याद आया है
अब के फिर ना मिलें ख़्यालों में
ख़्वाब में रो के हम ने पाया है
दर्द, आंसू, फरेब, दगा
ज़ख़्म अनगिनत तुम से खाया है
फिर वही भूल हो गई उससे
गैर का ख़त मेरे नाम आया है

Wednesday 12 May 2010

मिलन की कोई रात आई ही नहीं


रात तारीकियों का पहरा था
मेरी खिड़की के दोनों दरवाज़े
हवा के तुन्द झोंकों से लड़ रहे थे
चंद जुगनू कभी चमक करके
तीरगी से भरी मेरी कोठरी में
खैरात में रौशनी के चंद टुकड़े उंडेल देते थे
सारी दुनिया थी अपने ख़्वाबों में
मैं तुम्हारे ख़्यालों में जागता ही रहा
वक्त की रफ्तार और दिल की धड़कनों की शिद्दत
आंकने की बेजा कोशिश कर रहा था
ज़ेहन के पुराने दफ्तर से
हर एक याद काग़ज़ पर उतरने को बज़िद थी
बिस्तर की सिलवटें कराह रही थीं
दर्द आंखों के रस्ते गालों को छू रहा था
तुम्हारी बातें कानों के परदे से बराबर टकरा रही थीं
हर याद बस तुम्हारे गीत गाने को कह रही थी
किसी को कुछ पता नहीं था
सब अपनी ही गा रहे थे
हां, वह सब अपनी जगह सही भी थे
महीना भी तो यही था
मई का
हां, यही तारीख भी थी
समां भी कुछ ऐसा ही था
हां, उस वक्त मैं तन्हा नहीं था
तुम्हारी बाहों के घेरे थे
तुम्हारी ज़ल्फों का साया था
तुम्हारे चेहरे की ख़ूबसूरत रौशनी थी
तुम्हारे बदन की ख़ुशबू से
पूरा कमरा भरा हुआ था
हां, ठीक उसी वक्त
हम ने ख़िडकी के बाहर
सितारे को टूटते देखा था
और फिर यक-ब-यक
हम दोनों ने दुआ के लिए हाथ उठा लिए थे
तुम्हें याद है हमने क्या मांगा था
मेरे ख़ुदा, हम कभी जुदा ना हों
मगर उस हसीन रात के बाद
मिलन की कोई रात आई ही नहीं