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Friday 10 July 2009

शाम की दहलीज़ पर...


फिर ४ जुलाई की शाम आई थी , हाँ इस बार कुछ मुख्तलिफ थी , मैं तनहा था , अकेला उस वीराने में बने इक सुनसान घर में ... किसी आवाज़ का कोई गुज़र न था , चिडयों की चेह्चेहाहत कभी कभी तारीकी की दबीज़ चादरों में लिपटे रात के सन्नाटों को चीरती हुई मेरे घर के कोने में शोर मचा जाती थी ... रौशनी के नाम पर फ़क़त इक दिया था , टिमटिमाता हुआ ... कभी कभी जुगनुओं का कोई झुंड आता और अंधेरे घर में रौशनी के चाँद टुकड़े बिखेर कर चला जाता , आँखें दूर तक उन के चमकते अक्स देख कर उन का पीछा करतीं , दिल चाहता दौड़ कर बुला लें , मगर लाहसिल , वो देर तक न ठहरे थे न ठहेरने वाले थे , आख़िर मुफ्त में कितनी रौशनी लुटा पाते वो भी ... गाँव से दूर बाग़ में बना मेरा आशियाना मेरी तन्हैओं से आबाद था ...
उफ़ कितनी जानलेवा थी वो तन्हाई ... बिज्लिओं की गडगडाहट ने कान के परदे सुन कर दिए थे ...रोशनदान से बारिश की कुछ बूँदें अन्दर आ रही थी , शायद बाहर बारिश शुरू हो गई थी , हवा तेज़ हो चुकी थी , बारिश की बौछारें तेज़ हवा के साथ घर के अन्दर क़दम रखने लगी थी ... घर के इर्द गिर्द लगे हुए आम और इमाल्तास के दरख्तों ने अपने पत्ते ख़ुद से जुदा कने शुरू कर दिए थे , हवा में तेज़ी बढती जा रही थी ... अकेले घर का दिया भी अब तेज़ हवा से लड़ रहा था , शायद कुछ और जीने की तमन्ना थी उस की ... या फिर शायद मुझे कुछ देर और अपनी रौशनी देने के लिए वो हवा से हाथापाई कर रहा था , शायद कहीं बिजली गिरी थी , यकायक तारीकी में डूबा घर उजाले में नहा गया था , दीवारें जैसे हिल गई थी , कान के परदों से बड़ी देर तक बिजली की बाज़गश्त टकराती रही , अचानक गिरने वाली बिजली ने खौफ को मेरी आंखों का पता बता दिया था , खौफ का साया मेरी आंखों के सामने गर्दिश कर रहा था , मुझे डर तो नही लगता था मगर जाने क्या था उस बिजली में कौफ़ से मेरा बदन काँपने लगा था ... पियास से हलाक सूख गया था ... मैं बेशुध हो कर पास ही पड़ी कुर्सी पर बैठ गया , बारिश अब भी जारी थी , ऐसा लग रहा था जैसे आसमान अपना सारा बार ज़मीन के सीने पर लाड कर ही दम लेगा ... बारिश से लुत्फंदोज़ होने की तमन्ना दिल में बराबर कचोके लगा रही थी , वैसे भी गर्मी की शदीद मार झेल कर बदन जवाब दे चुका था ।
कुछ सोचते हुए मैं भी उठ खड़ा हुआ ... अब में बरामदा और राहदारी से गुज़रता हुआ लान में पहुँच चुका था , बारिश की ठंडी बूँदें मेरे प्यासे बदन के पोर पोर को प्यार से नहला रही थी ... उस की तासीर मेरी रूह को छु रही थी , बड़ी देर तक उस बारिश में भीगता रहा ... शायद जेहन के परदों से कोई याद हो कर गुज़र रही थी ... लान में मौजूद हर चीज़ में कुछ यादें , कुछ बातें इक बिछडे साथी की याद दिला रही थी ... हाँ शायद यही की काश वो नरम वो नाज़ुक बाहों के घेरे आज मेरे बदन से लिपटे होते ! काश वो पास में होते ! शायद हम इस नरम वो नाज़ुक और मस्तानी हवा से बहुत देर तक लुत्फंदोज़ होते रहते ... बारिश अब बहुत धीमी हो चुकी थी , इक्का दुक्का बूँदें अब भी ज़मीन की प्यास बुझाने का काम कर रही थी , आसमान की तरफ़ निगाहें उठाई , कुछ सितारे और कुछ बादलों के बीच से चाँद बाहर आने की कोशिश कर रहा था ... हाँ वाही आधा अधूरा चाँद ...देखते ही दिल वो दिमाग अपने चाँद की तरफ़ दौड़ता चला गया , रोकने की लाख कोशिश की मगर सब बेकार रही ... फिर ख़यालात की टिड्डियाँ मेरी यादों पर हमला आवर हो गईं , इक इक कर के उन के साथ गुज़रे तमाम ज़िन्दगी के हसीं लम्हात , अनमोल पल और तमाम औराकेपरीशां उलटने शुरू कर दिए ।
वो भी जुलाई ही का महीना था ... हाँ शायद तारीख भी यही थी , बारिश भी तो ऐसे ही हो रही थी , नही शायद इस से भी तेज़ थी ...उस दिन तो आसमान जी भर के रोया था , बिजली इक बार नही कई बार गरजी थी , मेरे घर की बेपनाह तारीकिओं को आसमानी बिज्लिओं की चमक ने कई बार उजाले मुफ्त बांटे थे ... मगर ... वो रात कितनी सुहानी थी ... शायद तुम थे इस लिए ... कितना प्यारा अहसास था , कितनी बार हम ने उस बिजली का शुक्रिया अदा किया था , हाँ वाही बिजली जो दूर खड़े दो कालिब को यकजान कर के अपने देस चली गई थी ...
तुम्हें याद होगा उस दिन की तन्हाई ने हमें कितनी खुशियाँ दी थी , हाँ दरोदीवार गवाह हैं , वो चाँद भी गवाह है , शायद इसी लिए आज मुझे तनहा देख कर वो भी आँख मचोली खेल रहा था , हाँ कितनी अच्छी और कितनी प्यारी थी वो रात , बारिश और तुम्हारे हसीं कुर्ब ने मेरे सुनसान घर की साड़ी तनहाइओं को मार डाला था ,... आज भी जुलाई की वाही तारीख थी , वाही घर , वाही मौसम , वाही बारिश , मगर आज कुछ भी अच्छा नही लग रहा था , बारिश में भीग कर बदन कप्कपने लगा था , ठंडी हवाएं बदन जला रही थी , हाँ शायद तुम नही थे इस लिए ... आसमान पर चाँद निकला था मगर मेरा चाँद न मालूम देस में जा बसा था .....

23 comments:

ओम आर्य said...

bahut hi khub bhaiya

रंजू भाटिया said...

अच्छा लाग इसको पढना ..

रंजू भाटिया said...
This comment has been removed by the author.
अलीम आज़मी said...

very nice to c urs articles its really fabulous

रंजन (Ranjan) said...

बहुत खुब..सुन्दर..

निर्मला कपिला said...

बहुत सुन्दर और भावमय रचना है आभार्

"अर्श" said...

bahot khoob likhaa hai bhaee aapne... puri tarah se baandhe rakhaa padhate wakht... badhaayee...


arsh

हरकीरत ' हीर' said...

बहुत अच्छा लिख रहे हैं आप .....!!

कडुवासच said...

... प्रभावशाली लेखन !!!!

विनोद कुमार पांडेय said...

बेहतरीन..
बस एक ही शब्द है ऐसे संस्मरण के लिए..

M VERMA said...

"या फिर शायद मुझे कुछ देर और अपनी रौशनी देने के लिए वो हवा से हाथापाई कर रहा था"
बहुत प्रभावशाली

डिम्पल मल्होत्रा said...

khoobsurat yadein...lafzo me piroyee huee....

डिम्पल मल्होत्रा said...

khoobsurat yadein...lafzo me piroyee huee....

Urmi said...

बहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने! इतना अच्छा लगा कि कहने के लिए शब्द कम पर गए!

रज़िया "राज़" said...

बडी गहराइ से लिख़ी गई है ये पोस्ट। लाजवाब। अभिनंदन।

Prem Farukhabadi said...

बहुत प्रभावशाली!!!!

शोभना चौरे said...

itni choti umr me itna achha lekhan badhai.
dhnywad

shama said...

Padhna shuru karen,to roknaa mumkin nahee...!Isqadar khoob sooratee se bayan ho raha hai...!

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dr amit jain said...

bahut badiya , dil kay ahsash blog par utar diye hai aapne

Vinay said...

सशक्त लेखनी
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श्री युक्तेश्वर गिरि के चार युग

Anonymous said...

क्या टूट कर लिखा है मेरे भाई......बहुत ही उम्दा.....हम तो पढ़ते-पढ़ते बह गए भावों के इस प्रवाह में......

साभार
प्रशान्त कुमार (काव्यांश)
हमसफ़र यादों का.......

ज्योति सिंह said...

bahut hi khoobsurat rachana .jise, man kare barbar padhe .

Sonalika said...

itne sare comment ke baad mere liye kuch bach hi nahi. tumhe shikayek nahi honi chiye mujse.
@BAHUTKHOOB@