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Thursday, 31 December 2009

नया साल मुबारक हो

आज दिल से बस एक ही दुआ निकल रही है कि हर किसी को नया साल मुबारक हो... उसकी ज़िंदगी में कोई गम ना आए, हमेशा खुशियों का पहरा हो, कलियों की तरह खिलना और फूलों की तरह महकना हर किसी की पहचान बन जाए... हर आरज़ू हर तमन्ना हर चाहत पूरी हो... हर मकसद में कामयाब हों...कोई किसी से जुदा ना हो... हर किसी का ये नया सूरज हमेशा चमकता रहे...
ख़ुदा करे कि ये नया साल
तेरे दामन में
वह सारे फूल खिला दे
कि जिनकी ख़ुश्बू ने
तेरे ख़्याल में
शमऐं जलाए रखी हैं
तो नए साल पर अपने हौसले बलंद कीजिए...हर बुराई से टकराने का मन बनाईए और किसी ग़लत चीज़ से समझौता ना कीजिए...फैज़ की इस नज़म से पोस्ट ख़त्म कर रहा हूं
बोल, कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल, ज़ुबां अब तक तेरी है

तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल कि जान अब तक तेरी है

देख की आहन-गर की दुकान में
तुन्द हैं शो'ले, सुर्ख है आहन

खुलने लगे कुफ्लों के दहाने
फैला हर एक ज़ंजीर का दामन

बोल, यह थोड़ा वक़्त बोहत है
जिस्म-ओ-जुबां की मौत से पहले

बोल की सच ज़िंदा है अब तक
बोल, जो कुछ कहना है कह ले

Friday, 18 December 2009

रात को ही क्यों...

एक वक्त था जब महबूबा से मिलने के लिए आशिक को रात से अच्छा वक्त कोई नहीं लगता था इस लिए वह जब आंचल रात का लहराए और सारा आलम सो जाए, तुम शमा जला कर ताज महल में मुझ से मिलने आ जाना की गुहार लगाया करता था, ज़ाहिर है हर किसी की चाहत भी तो यही होती है कि जब उस का महबूब उस की बाहों में हो और वह उसकी ज़ुल्फों में अपनी उंगलियां फेर रहा हो तो कोई उसे परेशान ना करे और इस चाहत को पूरा करने के लिए रात की तनहाई से अच्छा और कौन सा वक्त हो सकता है, इसी लिए महबूब के साथ चौदहवीं की रात को वक्त गुज़ारना बहुत दिलफरेब होता था, लगना भी चाहिए आखिर उस से अच्छा और क्या हो सकता है कि चांद अपनी खूबसूरत चांदनी के साथ दो प्यार भरे दिलों का साथ दे रहा हो।
मगर ये तो शायद उस वक्त की बात है जब हमारा जन्म भी नहीं हुआ था, हां शायद लैला मजनू और शीरीं फरहाद के ज़माने तक ही ये हालात रहे थे क्योंकि जब से हम इस दुनिया में आए हैं हमें तो कुछ और ही तजरूबा हुआ है। जैसे ही शाम का वक्त होता है, सूरज अपने बिस्तर समेटना शुरू करता है और सलेटी मायल सुर्ख आसमान के किनारे बहुत नीचे ढलान पर आफताब लुढ़कने लगता है तो कभी अम्मी आवाज़ देना शुरू कर देती हैं बेटा रात हो रही है कहीं मत जाओ, कभी बहन बाहर ना निकलने का मशवरा देती है तो कभी पापा घर पर ही रहने का फरमान सुना जाते हैं।
बच्पन से लेकर आज तक यही आलम है। दादी की अकसर कहानियों में जहां भी रात का ज़िक्र आता उसे सुनने में बहुत मज़ा आता था। रात की तारीकियों से जुड़ी कहानियां हमारी मुहब्बत बन चुकी थी।
एक बात हमारे दिमाग को हमेशा उलझाए रखती है कि आखिर ऐसा क्या था कि दादी तो इतनी अच्छी कहानियां सुनाती थीं और मां बाप हर बार रात से डराते ही रहते थे। समझ की उम्र को पहुंचने के बाद से ही इस पर गौर करने का दिल करने लगा। मुझे 'रात' की फितरत और उसके स्वभाव को समझने का चसका लग गया है। क्योंकि कहानियों के अलावा अगर मैंने हक़ीकत में अपने कानों से रात के मुतअल्लिक कुछ सुना तो यही मालूम हुआ कि 'रात' बुराईओं को जन्म देती है, हर दिन रात के बारे में नया तजरूबा होता है कभी कानों से आवाज़ टकराती है कि अंधेरा छाने लगा है, रात आने को है अपने घरों को चले जाओ तो कभी रात के सन्नाटों का खौफ़ दिला कर घरों में रहने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। खौफ़ और बुराईओं के लिए हमेशा से ही मैं ने रात को जाना है। मैं ने हमेशा यही पाया कि शायद रात ख़ौफ़, परेशानी, बुराई और ख़राबी की जड़ है। मैं ने इसके लिए ख़ुद तजरूबा किया। रात को उठ कर उस वक्त सुनसान रोड पर चला जब सारी दुनिया नींद की आग़ोश में खर्राटे लेती है, मगर क्या हुआ, मैं ने हर रात या तो ये महसूस किया कि किसी की चीख़ें मुझे आवाज़ दे रही हैं या कोई मदद के लिए गुहार लगा रहा नहीं तो किसी की हयात दम तोड़ रही है या फिर किसी की नब्ज़ उसका साथ छोड़ रही है और वह अपनी उखड़ी उखड़ी सांसों के साथ अलविदा कह रहा है।
ये सब देख कर मझे ये कुछ कुछ समझ आने लगा था कि आख़िर हमारे मां बाप हम्हें रात से क्यों डराते थे। शायद अब ज़माना बदल चुका था अब वह वक्त नहीं रह गया था जब रात भी दिन की तरह होता था जिसमें ना तो कोई ख़ौफ़ था और ना ही कोई डर। मगर आज कत्ल, ख़ून और दूसरी खतरनाक चीज़ें अंजाम देने के लिए रात का इस्तेमाल किया जाता था। मगर अब मुझे ये चीज़ खटकने लगी है कि आख़िर रात ही से क्यों डराया जा रहा है, दिन से क्यों नहीं? आख़िर वह कौन सा काम है जो अब दिन में नहीं होता? अब रात का इंतज़ार कौन करता है अब दिन में वह सब कुछ हो जाता है जिसे रात के काले साऐ में करने से आदमी डरता है तो फिर सिर्फ रात ही को क्यों बदनाम किया जाता है?

Thursday, 10 December 2009

एक नज़्म


1
उनसे बिछडे हुए एक अरसा हुआ
उनको देखे हुए इक ज़माना हुआ
लोग कहते हैं हम उनके दीवाने हैं
वो शमा और हम उनके परवाने हैं
प्यार उनके लिए मेरी आंखों में है
मेरा दिल मेरी जान उनकी सांसों में है

वह संवरती थी हम को दिखाने की ख़ातिर
ऐसे चलती थी हम को लुभाने की खातिर
उसकी ज़ुल्फें थी मुझको सुलाने की ख़ातिर
उसकी आंखें थीं मुझको पिलाने की ख़ातिर
जिस्म उनका था बस मेरी बाहों की ख़ातिर
प्यार उसको मेरी हर अदाओं से था
2
मैंने ऐसा सुना तो अचंभा हुआ
मैंने सोचा की ये भूल कैसे हुई

कि
प्यार अपना सभों की नज़र में रहा
बस हम्हें इसकी कोई ख़बर न हुई


ये अलग बात हम भी शायद उसके दीवाने थे
प्यार हमको भी था और उसको भी था
पर हवस की कोई भी निशानी ना थी

लेकिन

दुनिया उसको कुछ और रूप देती रही


मैं ने देखा ख़ता इसमें मेरी ना थी
सारी दुनिया नशे में उसके मख़मूर थी
सब पे उसके ही जलवों की परछाईं थी
याद करना उसे उनकी मजबूरी थी
शायद वो उनके ख़्वाबों की ताबीर थी
नाम मेरा लिया, दिल को ठंड़ा किया
याद उसको किया, रूसवा मुझको किया

Sunday, 6 December 2009

छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे…


6 दिसम्बर 1992 को जो घटना बाबरी मस्जिद की शहादत के रूप में हुई उसने ना सिर्फ हिंदुस्तानी तहज़ीब का ख़ून किया बल्कि भारतीय संमिधान का भी जनाज़ा निकाल दिया था। इस घटना ने जहां हर दिल को रोने पर मजबूर कर दिया था वहीं यह भी सोचने पर मजबूर कर दिया था कि आख़िर क्या अब यहां जम्हूरियत का कोई मुहाफिज़ नहीं है या फिर क्या अब हिंदुस्तानी लोग सेकियुलरिज़म से उकता चुके हैं?

आज उसकी 17वीं बरसी पर मैं अपने गमों का इजहार करता हूं साथ ही मैं आप की ख़िदमत में मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की मशहूर नज़म दूसरा बनवास पेश कर रहा हूं

छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे

राम बनवास से जब लौट के घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक्से दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसंबर को श्री राम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आये?

जगमगाते थे जहां राम के क़दमों के निशां
प्यार की कहकशां लेती थी अंगड़ाई जहां
मोड़ नफरत के उसी राहगुज़र में आये
धरम क्या उनका है, क्या जात है, यह जानता कौन?
घर न जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा, लोग जो घर में आये
शाकाहारी है मेरे दोस्त, तुम्हारा खंजर

तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की खता ज़ख्म जो सर में आये
पांव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
के नज़र आये वहां खून के गहरे धब्बे
पांव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम यह कहते हुए अपने द्वारे से उठे
राजधानी की फ़िज़ा आयी नहीं रास मुझे
छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे।

Wednesday, 2 December 2009

मैं तुम बिन अधूरी हूं


मुसलसल ख़्वाब आते हैं

सूरज अपना सफर तय करके

अपने घर आराम करने जा रहा है

कोई पागल , दीवानी

बाल खोले, नन्गे क़दम, दीवानावार

तपती रेत पर सरपट भाग रही है

दुपट्टा उसके सर से होता हुआ

कांधे पर आ कर लटक गया है

उसकी बालियां कानों में झूला झूल रही है

उसके होंट प्यास से सूख गए हैं

उनकी सुर्खी कहीं गायब हो गई है

रेशमी ज़ुल्फों पर धूल की तह जम रही है

आंखों में रेत के हज़ारों ज़र्रे गड़ रहे हैं

रूखसारों पर आंसू के कतरों और

रेत के टुक्डों ने ज़ख्म का सा निशान बना दिया है

वह एक हाथ आगे बढ़ाए हुए है

ऐसा लग रहा है किसी को रोकने की कोशिश कर रही है

मुंह खुला हुआ है

ज़रा क़रीब जा के देखा

शक्ल और साफ हो गई

मगर

अब कुछ आवाज़ें भी सुनाई दे रही थी

‘‘सुनो साजन

तुम मत जाओ

मैं तुम से कुछ नहीं मांगूंगी

सुनो

लौट आओ

अब मुझे चूड़ी, कंगन

मेंहदी, बिंदिया

अफशां, लाली

कुछ नहीं चाहिए

सुनो

बस तुम लौट आओ

मैं तुम से कुछ नहीं मांगूंगी

सुनो साजन

मेरा हर सिंगार तुम हो

और मैं तुम बिन अधूरी हूं ’’

Sunday, 22 November 2009

तुम ईद मना लो तनहा तनहा हम रो लेंगे तनहा ही



मेरी पलकों पर जो सपने थे पल भर में चकनाचूर हुए
क्या ख़बर सुनाई ज़ालिम ने और हम ग़म से रनजूर हुए
क्या सोचा था इस बार अगर हम उनसे मिलने जाएंगे
हर वक्त हमारे साथ रहें कुछ ऐसे लम्हे लाएंगे
पर ख़ता हमारी थी शायद जो सपना पूरा हो सका
क्या ख़बर सुनाई ज़ालिम ने हर सपना अपना टूटा था
मां बाप की हसरत रोती रही हर आस हमारी टूट गई
उम्मीद की इक हल्की सी किरन बस सामने मेरे बैठी थी
दामन पे हमारे दाग़ ना था फिर ऐसी सज़ा क्यों हम को मिली
हर वक्त यही दिल सोचा किया आंखें भी उसी के साथ रहीं
उस वादे का क्या करते हम जो उनसे लिया था पहले ही
उन नैनों को कैसे रूलाते हम जो खुशियां भूली बैठी थीं
कैसे ये कहते आएंगे ना हम इस बार रहेंगे तनहा ही
तुम ईद मना लो तनहा तनहा हम रो लेंगे तनहा ही

Friday, 20 November 2009

दम तोड़ती संस्कृति


भारत में महान हस्तियों की पूजा और उनकी महानता के गुणगान करने का रिवाज बहुत पहले से चला आ रहा है और इस में किसी तरह की कोई कमी नहीं छोड़ी जाती है शायद इसी वजह से किसी ने हिंदुस्तान को मुर्दा परस्तों का देश भी कहा था क्योंकि ये यहां किसी भी बड़ी हस्ती के मरने के बाद उसकी कदर में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी जाती है। उसके जीते जी चाहे उसके सर पर कोई साईबान ना रहा हो मगर मरने के बाद समाधी के रूप में उसे एक बहुत बड़ा घर दिया जाता। आप को ग़ालिब याद होंगे जिन्होंने उर्दू शायरी को एक नया अंदाज़ दिया था, ज़िन्दगी में इस महान आदमी के पास किराए का तंग सा मकान था और वह ये कहता फिरता था कि हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे मगर उसकी मौत के बाद इतना बड़ा हिस्सा उसके नाम कर दिया गया जिसका सपना भी उन्होंने नहीं देखा होगा।
लेकिन शायद ये रस्म धीरे धीरे अपने अंजाम को पहुंच रही है और अब किसी के पास इनकी चीज़ों पर तवज्जुह देने की ज़रूरत नहीं महसूस हो रही है। शायद इसी वजह से तो आज फ़िराक़ गोरोखपुरी के घर का ये हाल हो रहा है। बनवारपूर गाँव मे28 अगस्त सन 1896 को जन्म लेने वाले रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपने क़लम से भारत की आज़ादी के लिए जो कोशिशें कीं उससे कोई भी शख़्स ने इन्कार नहीं कर सकता है और शायद उनके इसी यौगदान के लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुस्कार से सम्मानित किया गया था। मगर शायद अब इस यौगदान के धुंधले नक्श भी लोगों के ज़ेहन पर बाक़ी नहीं हैं।
ख़बर तो ये है कि फ़िराक़ ने जिस शहर का नाम रौशन किया आज वही शहर उन्हें भुला बैठा है और वह घर जहां से शायरी का ये सफर शुरू आज वह दूसरे के कब्ज़े में जाकर अपना वजूद खो रहा है। रिपोर्ट के अनुसार फिराक गोरखपुरी का लक्ष्मीनिवास को पुर्वांचल का आनंद निवास कहा जाता था मगर आज इस इतिसातिक निवास पर अबैध कब्जा है।
ये देखने की बात है कि जहां देश पर जान देने वालों को इंण्डिया गेट पर हमेशा ज़िन्दा रखने की कोशिश की जाती है वहीं अपने क़लम की लहू के हर बूंद को निचोड़ कर आज़ादी की सुबह लाने के लिए कोशिश करने वालों का ये हशर हो रहा है।
मगर शायद अब दुनिया के अंदाज़ बदल चुके हैं तो लोगों को याद करने का भी नया तरीक़ा ईजाद किया जाना ज़रूरी था। हां इसीलिए तो उनके घर की जहां एक विरासत के तौर पर हिफ़ाज़त करनी चाहिए वहीं आज उसे हडपने के लिए सभी मुंह फैलाए हुए हैं।
मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई ना हमें
और हम भूल गऐ हों तुझे ऐसा भी नहीं
कभी फिराक ने इन्हीं शब्दों से अपने महबूब से कलाम किया था और आज उनको लोग यही कहकर पुकार रहे हैं कि ऐ फ़िराक़ हमने तुम्हें बहुत दिनों से याद नहीं किया है मगर हम तुम्हें भूले नहीं हैं, हमें तुम्हारी शायरी तो याद नहीं मगर तुम्हारा घर हमें तुम्हारी याद दिलाता रहता है।
यहां सवाल ये उठता है कि क्या ऐसी महान हस्तियों कि वरासत के साथ ऐसा होना चाहिए। शायद नहीं। मगर ऐसा हो रहा है और इसका तमाशा सभी देख रहे हैं। ये देखते हुए ये कहना ज़्यादा मुश्किल नहीं है कि भारत दूसरी चीज़ों की तरह से अपनी ये पहचान भी खोता जा रहा है। सरकार के लिए इस बात पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है कि इन हस्तियों के वरासत का बुरा हाल ना किया जाए वरना एक दिन ऐसा आएगा जब यहां की संस्कृति खुद से शर्म करेगी और ये कहती फिरेगी कि मैं तो ऐसी ना थी, मुझे ये पहचान क्यों दे दी गई?

Sunday, 15 November 2009

एक तमन्ना-एक एहसास

किसी को प्यार करूं और किसी के साथ रहूं
किसी को अपना बना लूं किसी का नाम बनूं
किसी की खुश्बू चुरा लूं किसी को महकाऊं
किसी की आंख में काजल की तरह बस जाऊं
किसी के लब से मुहब्बत का जाम पी करके
किसे की नरम सी बाहूं में जा के सो जाऊं
किसी की शौख़ अदा दिल को मेरे बहकाए
किसी को चाह लूं और वह भी मेरा हो जाए
किसी की बातों में हर पल मेरा ही ज़िक्र रहे
किसी की याद का जुगनू हमेशा साथ रहे
किसी के हुस्न को तस्वीर करके देखा करूं
किसी की ज़ुल्फ के साए में जी के मस्त रहूं
किसी का नाम मेरे दिल को हर पल धडकाए
किसी का ग़म मेरी पलकों पे आंसू धर जाए
किसी के सांसों की गर्मी बदन जलाती रहे
किसी के साथ जो हूं रात मुस्कुराती रहे
किसी के साथ चलूं रास्ते भी साथ चलें
कहीं अकेला चलूं मंज़िलें भी दूर लगें
किसी से दूर हूं धडकनों को कल ना हो
किसे के साथ हूं मुश्किलों मे ड़र ना हो
किसी के हाथ में हो हाथ दूर तक जाऊं
किसी का साथ जो छूटे तो शायद मर जाऊं
किसी की मांग में सिंदूर मेरे नाम का हो
किसी की जान मैं हूं कोई मेरी जान रहे
दुआ करो कि ये रिश्ता कहीं से बन जाए
ख़ुदा करे कि मुझे ऐसा कोई मिल जाए

Wednesday, 11 November 2009

ख़ून में सने सपने

हर तरफ शोर मचा था, कहीं चीखें थीं तो कहीं रोना, एक आफत एक तूफान आ गया था ज़िन्दगी की गली में, तलवारें मियान से बाहर थीं, किरपान निकले थे, तिरशूल लहरा रहे थे, मंदिर की घंटियां, मस्जिद से उठने वाली सदाएं, गुरूदवारे की आवाज़ें सब तलवारों, किरपानों और तिर्शूलों के टकराने की संगीत में कहीं गुम हो गए थे, मुरदा लाशों पर ज़िन्दा लाशें दौड़ रही थीं, उड़ती धूल को लहू की बूंदों से शान्त किया जा रहा था, धरती पर पहला क़दम रखने वाले मुस्तकबिल की सांसें घुट रहीं थीं, उसे मां की छातियों से दूर फैंक दिया गया था, कोई उस मासूम को उठाने की कोशिश कर रहा था मगर पिंडलियों पर होने वाले वार ने उसे निढ़ाल कर दिया, नन्हा बच्चा तड़पता हुआ बेबस मां के पास गिरता है, उस का एक हाथ उसकी नंगी छातियों था मगर वह अपनी इज़्जत अपनी बाहों में छुपा रही थी, दूध की प्यास से सूखे होंटों पर लहू निचोड़ा जा रहा था और इंसानियत ख़ून के आंसू रो रही थी...

Sunday, 8 November 2009

ख़्वाबों की शहज़ादी

ख़्वाब और जवानी एक दूसरे से जुडी हुई चीज़ें हैं। बच्पन में ख़ूबसूरत परियों की कहानियां सुन कर सोना जितना अच्छा लगता है जवानी में हसीनों की दास्तान उतना ही मज़ा देती है। एक उम्र के बाद सपनें देखना और उनकी ताबीरें सोचना दिमाग को बहुत पसंद आता है, खास कर नींद की आगोश में जाने से पहले किसी से मिलन की चाहत ज़ोर पकड़ लेती है और फिर चांद के साथ रतजगे का सिलसिला शुरू हो जाता है। लगन और चाहत कामयाब होती है फिर किसी ना किसी चांद का दीदार हो ही जाता है।
महबूब को चांद बतलाने की रस्म बहुत पुरानी है मगर जब भी ख़्वाबों में किसी हसीना से मुलाकात होती है तो लोग उसे चांद सा ही बतलाते हैं। इन दिनों किसी की दुआएं काम आ रहीं हैं या फिर बद्दुआवों का असर था जो हर रात नींद आने से पहले ही पलकों पर कोई अपने नरम हाथ रख कर बैठ जाता है, शायद किसी अपने की (बद) दुआ का असर था, मगर कुछ भी हो इन ख़्वाबों ने मुझे कुछ कहने पर मजबूर कर दिया था, मुझे ड़र तो लग रहा कि उसकी ताबीर कहीं ग़लत ना हो जाए इसलिए किसी से कहने से दिल डरता था मगर क्या करें कुछ लोगों से रिश्ता ही कुछ ऐसा होता है कि मजबूरन कहना पड़ जाता है। मैं ने भी वही किया और दिल पर जब्र करते हुऐ कह दिया, वह भी ऐसे निकले की हर बात पूछने लगे। वह दिखने में कैसी थी, उसकी आंखें कैसी थीं, उसकी ज़ुल्फों का क्या हाल था, उसके लब के जलवे भी बता दो, उसके जिस्म की तराश कैसी थी और कई तरह के सवालों की बौछार कर दी। महबूब की तारीफ करना किस को पसंद नहीं होता। मेरे लिए तो अभी ख़्वाबों में आने वाली शहज़ादी ही मेरी महबूबा थी, वह ख़्वाब ही थी पर मुझे उसकी बातें करते हुए अच्छा लग रहा था जैसे मैं उसे देख रहां हूं और खुद उसी से उसकी तारीफें कर रहा हूं मैं एक एक करके उसके बारे में बताने लगा। उसका दिलकश हुस्न मैं कभी नहीं भूल सकता। गुलाबी चेहरा इस तरह खिला हुआ था जैसे फूल की कली हो, मैं सपने में ही उससे ये पूछने पर मजबूर था कि क्या तुम कोई जादू हो, खुश्बू हो या फिर कोई अपसरा हो, आंखें तो ऐसी थीं जैसे मयकदा(शराबख़ना) हो, उन नज़रों पर नज़र पड़ते ही मदहोशी का आलम तारी हो गया था मगर ख़्वाबों में ही मैं उसकी आंखों की सारी शराब पी लेने की नाकाम कोशिश कर रहा था, उनके झुकने, उठने और झुककर उठने की हर अदा जानलेवा थी, उसके लबों की सुर्खी ऐसी थी जैसे गुलाब की पंखुड़ी हो, पूरा चेहरा किसी कंवल, या कली की तरह शादाब था या फिर महताब की तरह रौशन था। ज़ुल्फों ने तो जान ही ले ली थी, सियाह रात जैसी ज़ुल्फें कोई काली बला लग रहीं थीं, उनके बिखरने और सिमटने पर ही दुनिया के हालात बदल जाते थे, जिस्म तर्शा हुआ था, दिलकश इतना की ऐतबार ही नहीं हो रहा था, कभी उसके होने पर यकीन आजाता तो कभी एक गुमान होने का शुब्हा हो जाता, आंखें मल मल के देखता था ताकि ख़्वाब होने का गुमान ना रह जाए (ये सब सपने की हालत में था), कितना बताता, उस परी सूरत की दास्तान तो बहुत लंबी थी। तारीफें थी कि ख़त्म ही नहीं हो रही थीं किसी और पोस्ट में उस हसीना पर चर्चा ज़रूर करूंगा और उस वक्त उसकी मुकम्मल तसवीर खींचने की पूरी कोशिश होगी। अभी तो यही ख़्याल सता रहा है कि क्या ये सपना सच होगा या फिर ...

Monday, 2 November 2009

शाहरूख़ - सपनों के सफ़र का कामयाब मुसाफिर


एक शख़्स जिस का चेहरा हज़ारों के ख़्वाबों की तस्वीर, एक ऐसा अदाकार जिस का ज़माना दीवाना, एक ऐसा इंसान जिसके रोने का अंदाज़ लाखों हसीनाओं की नींदें उड़ा दे, एक ऐसा दीवाना जिसकी चाहत हर किसी का सपना, उसकी हर अदा, हर अंदाज़, हर नख़रा और हर अहसास सभी के तंहाईयों का साथी है।

आंखों में हजारों सपने, चेहरे पर लहराता हौसला, मंजिल तक पहुंचने का जोश और कड़ी मेहनतों के बल बूते पर दुनिया में अपना नाम पैदा करने का ख़्वाब लिए जब शाहरूख खान ने मुम्बई के माया नगरी में क़दम रखा तो शायद उस ने यह कभी ना सोचा होगा की वह देखते देखते बॉलीवुड का बादशाह बन कर किंग खान के नाम से जाना जाने लगेगा और दुनिया उसकी एक झलक पाने के लिए बेताब होगी। मगर शायद किसमत शाहरूख पर कुछ ज़्यादा ही मेहरबान थी या फिर ये उस अदाकार की सलाहियतों का कमाल था कि कामियाबी हर मोड़ पर उसका रास्ता देखती नज़र आई। कुछ भी हो मगर शाहरूख के सुहाने फिल्मी सफर ने जहां उनके चाहने वालों की भीड़ पैदा कर दी वहीं उन के सपनों को भी बहुत हद तक सच साबित कर दिया।

दीवाना के राजा सहाय से लेकर बिल्लू का साहिर खान बनने में शाहरूख की अपनी उम्र के तकरीबन 17 साल लग गए। इस बीच शाहरूख चमतकार करते हुऐ राजू बन गया जेन्टिल मैन से दिल आशना है के करन के रूप में छाए रहे। माया मेमसाब और किंग अंकल के रूप में दिखते दिखते हार कर जीतने वाले को बाज़ीगर कहते हैं की गुहार लगा कर कब बाज़ीगर बन गया अंदाज़ा ही ना हो सका लेकिन शाहरूख अपने कैरियर की बलंदियों तक पहुंचने में जरूर कामियाब होगए। बाज़ीगर बनकर फिल्मफेयर बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड हासिल करने वाले विकी मल्होत्रा ने जब डर में राहुल मेहरा बन कर अपनी इमेज बदली तो फिर पूरी फिल्म में कि...किरन के लिए भागते रहने वाले शाहरूख को बेस्ट विलेन के अवॉर्ड के लिए चुन लिया गया। ये उनकी बेपनाह सलाहियतों का ही जौहर था कि इश्क आशिकी के रंगों और प्यार मोहब्बत की दास्तोनों को अपनी अदा देने वाला शाहरूख जब एक विलेन के रूप में नज़र आया तो लोगों ने उसे सराहने में कोई कमी ना छोड़ी।


शाहरूख़ की जिंदगी कभी हां कभी ना के अंजाम से गुज़री और फिर क्या था करन अर्जुन का ज़माना दीवाना होगया। गुड्डू ओह डार्लिंग कहते कहते आशिकों को समझा गया कि दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे।

राम जाने इंग्लिश बाबू देसी मेम की चाहत में ऐसा फंसा की आर्मी ने उसे दुशमन दुनिया का बदरू बना दिया। कोयला में मिली परेशानियों ने यसबॉस का रास्ता दिखाया और शाहरूख अर्जुन सागर बन कर परदेस को चला गया। गंगा ने जब दिल तो पागल है का फलसफा समझाया तो शाहरूख़ डुबलीकेट दिलसे कुछ कुछ होता है कहता हुआ बॉलीवुड़ का बादशाह बन गया। फिर भी दिल है हिंदुस्तानी के जोश ने हर दिल जो प्यार करेगा के राहुल को मुहब्बतें के राज आरयन के रूप में शाहरूख़ को बिग बी के सामने खड़ा कर दिया। वन 2 का 4 की गिनती सीखते सीखते अशोका कभी खुशी कभी गम की मार झेलते हुए हम तुम्हारे हैं सनम का ऐलान करते हुए देवदास बन गया।

चलते चलते कल हो न हो भी सामने आगई। मैं हूं ना ने वीर-ज़ारा के रिश्तों को स्वदेश में मशहूर करदिया। कभी अलविदा न कहना की पहेली बुझाने वाला डॉन चक दे इण्डिया के नगमें सुना गया। ओम शांति ओम का पाठ करने वाले शाहरूख की दुआ कबूल हुई और फिर क्या था रब ने बना दी जोड़ी। मगर पिक्चर तो अभी बाक़ी है मेरे दोस्त बिल्लू का साहिर इतनी जलदी दम लेना वाला नहीं उसे तो दुनिया को ये भी बताना है कि माई नेम इज़ ख़ान, और ख़ान मतलब शाहरुख़ खान जिसका आज जन्म दिवस है।

अदाकारी के मैदान में नए नए तरीके इजाद करने वाला शाहरूख आज के अदाकारों का रोल माडल है। उसने सिर्फ अदाकारी ही नही की बल्कि अपुन बोला तू मेरी लैला वो बोली फेंकता है साला जैसे हिट गानों को अपनी आवाज़ भी दी। फिल्मों को प्रोड्यूस भी किया मगर जब ख़ून के हर क़तरे में अदाकारी का रंग भरा हो तो कोई और चीज़ कैसे उस पर हावी हो सकती है। यही हुआ शाहरूख के साथ भी जितनी कामयाबी और जितना नाम उनकी अदाकारी ने उन्हें दिया और किसी चीज़ से उतना हासिल ना हो सका। खैर इतना तो सच है कि जो भी चाहूं वो मैं पाऊं ज़िंदगी में जीत जाऊं, चाँद तारे तोड़ लाऊं सारी दुनिया पे मैं छाऊं, यार तू भी सुन ज़रा आरज़ू मेरी है क्या, मान जा ए ख़ुदा इतनी है दुआ मैं बन जाऊं सबसे बड़ा, मेरे पीछे मेरे आगे हाथ जोड़ें दुनिया वाले, शान से रहूं सदा मुझ पर लोग हों फ़िदा बस इतना सा ख्वाब है ...की शाहरूख़ की दुआ ख़ुदा ने कबूल करली है।

Wednesday, 28 October 2009

करवट

उम्र के एक पड़ाव पर आकर ज़िन्दगी ज़ोर ज़ोर से सासें लेने लगती है...शायद थक चुकी होती है या बहुत ज़्यादा शरारतें उसकी सांसें तोडने लगती हैं या फिर यह वक्त का तक़ाज़ा होता है... कुछ भी हो मगर यहां से ज़िन्दगी अपने रंग बदलने लगती है, कुछ कड़वाहटों का सामना होता है तो कुछ हसीन ख़्वाब रात की तारीकियों में मन को गुदगुदाते भी हैं... बच्पन की सारी शौख़ी और सारी चंचलता कहीं दूर चली जाती है, मासूम से चेहरे पर हमेशा फैली रहने वाली हंसी पंदरह सालों का लम्बा सफर तय करने में कहीं खो जाती है और उस की जगह आंखों में रंगीन शामों की धुंध और मुस्तकबिल की धुंधली तसवीर समा जाती है...हां शायद बचपन के बाद आने वाले लम्हे कुछ इसी तरह करवट लेते हैं।

Thursday, 8 October 2009

गरीबों का लेखक- मुंशी प्रेम चंद

मुंशी प्रेम चंद की पुण्यतिथि पर खास

अगर हिनदुसतान को ताज महल जैसी हसीन इमारत पर फ़ख़्र है, कुतुब मीनार की बलंदियों पर नाज़ है और लाल किला की मजबूती पर उस की छाती चौड़ी हो जाती है तो वहीं रबिन्द्र नाथ टैगोर की कविताओं, बुल्बुले हिन्द सरोजनी नाइडो की कुर्बानियों और मुंशी प्रेम चंद जैसे महान लेखक के कारनामों को याद करके उसकी आंखों में चमक आ जाती है।
एक गरीब कलर्क की कुटिया में आंखें खोलने वाले धनपत राय ने शायद अपने ख़्वाबों में भी ना सोचा हो कि वह एक दिन हिनदुस्तान का नाम रोशन करेगा और अदब की दुनिया में प्रेम चंद बन कर दूसरों की रहनुमाई करेगा। 8-10 साल तक फारसी की पढ़ाई करने के बाद जब अंग्रेज़ी पढ़ाई का सिलसिला शुरू हुआ 15 साल की उम्र में शादी हो गई और एक साल के बाद पिता का देहान्ता हो गया। यानी एक दरवाज़े से खुशियों ने आना शुरू किया तो दुनिया के ग़मों ने खिड़कियों पर पहरा ड़ाल दिया।
15 साल के कमज़ोर कंधों पर ज़िम्मेदारियों का बोझ आ पड़ा और फिर लड़कों को टियुशन पढ़ा कर घर का बोझ संभला, शिक्षा विभाग में नौकरी मिली औऱ इसी दौरान प्रेम चंद ग्रेजुएट हो गए।
छोटी उम्र में कहानियों से प्रेम ने प्रेम चंद को कहानियां लिखने का हौसला बख़्शा और 1901 में ज़माना नाम की पत्रिका में कहानी लिखकर अपना सफर शुरू किया। छोटी छोटी कहानियों से शुरू होने वाला ये सफर अफसानों से गुज़रता हुआ नाविलों की सूरत इख़तियार कर गया और प्रेम चंद की कलम ने रूठी रानी, कृष्णा, वरदान, प्रतिज्ञा से चलते चलते प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमी, कर्मभूमी, गोदान और गबन जैसी नाविलें लिख कर दुनिया को चौंका दिया।
इस में कोइ शक नहीं गंगा जमुनी तहज़ीब की सरज़मीन बनारस से 6 मील दूर पर बसे लम्ही गांव में एक मामूली किसान के घर 31 जुलाई 1880 में जन्म लेने वाले प्रेम चंद जिन्दगी भर गांव और दिहातों में बसने वाले, झोंपडों में रातें बसर करने वालों और खेत की धूल को अपने पसीने से तर कर के रोटी खाने वालों की आवाज़ रहे।
प्रेम चंद ने जिन्दगी भर कहानियों और उपन्यासों को अपना हमराह बनाए रखा और हर कहानी में ज़मीन और खास कर हिनदुस्तान से जुड़ी परेशानियों और गरीब जनता के मुद्दों को उठाया। हकीकत पसंदी के इस अंदाज़ ने मुंशी प्रेम चंद को वो मक़बूलियत दी कि पूरा हिनदुस्तान उनका दीवाना बन गया।
चिलचिलाती धूप में ज़ख़्मी परिंदे की तरह सफर करने के हौसले प्रेम चंद को बहुत ऊंचाईयों तक पहुंचा दिया। मगर जिंदगी की तमाम खुशियों और मध्यम वर्ग के हर दुख़ दर्द को अलफ़ाज़ के रंगों में ढालने वाला कलम का ये सिपाही 8 अकटूबर 1936 में हज़ारों आंखों को आंसुओं में तर करता हुआ एक ना मालूम देस की तरफ सिधार गया


Monday, 5 October 2009

शब्दों का जादूगर-मजरूह सुल्तानपुरी

अगर हिन्दुस्तानी सिनेमा को राजकपूर की अदाकारी ने दीवाना बनाया था, रफी के सुरों ने नचाया था, नौशाद की धुनों ने एक नई दुनिया में खो जाने पर मजबूर किया था, साहिर के लिखे गानों नें जिन्दगी की तल्ख़ सच्चाईयों से सामना कराया था तो मजरूह सुलतानपूरी के गीतों ने कभी आंखों से बरसात करवाई तो कभी उदास आंखों में खुशियों की लहर दौड़ा दी।
जिन्दगी के हर फलसफा और जिन्दगी के हर रंग रूप को करीब चार दहाईयों तक अपने गानों में पेश करने वाले मजरूह सुलतानपूरी का जन्म एक पुलिस वाले के घर हुआ था जिसने उन्हें आला तालीम दिलाई, उन्हें एक महान आदमी के रूप में देखने के ख्वाब पाले। मगर शायरी से मुहब्बत करने वाले मजरूह ने डाक्टरी के पेशे को छोड़ कर शायरी की दुनिया में कदम रख दिया। यहां जो मुहब्बतें उनको मिलीं उस ने इन्हें ये मैदान ना छोडने पर मजबूर कर दिया। और फिर शायरी का ये सफर पूरे शान से शुरू हो गया। जब तवज्जह का मरकज़ शायरी बनी तो जिगर मुरादाबादी जैसे अज़ीम शायर उनके उस्ताद के रूप में सामने आए। इस दौरान मुशायरों में आने जाने का सिलसिला चलता रहा।
1945 में भी ऐसे ही एक मुशायरे में शिरकत के लिए मजरूह मुम्बई गए। मुम्बई में होने वाले मुशायरे उस वक्त खास अहमियत इस वजह से रखते थे क्योंकि वहां फिल्मी दुनिया की कई बडी हस्तियां तशरीफ रखती थी और कई दफा किसी शायर का कलाम पसंद आ जाता तो उस की जिन्दगी बदल ही जाती थी। यही हुआ मजरूह के साथ भी, उस मुशायरे में फिल्मसाज़ और हिदायतकार ए आर कारदार को मजरूह ने बहुत मुतअस्सिर किया जिस के चलते उन्होंने मजरूह को अपनी फिल्म में गाना लिखने की पेशकश की मगर मजरूह ने इनकार कर दिया। लेकिन जिगर मुरादाबादी के समझाने के बाद उन्हों ने गाने लिखने के लिए अपनी रज़ामनदी ज़ाहिर कर दी। संगीतकार नौशाद ने उन्हें एक धुन सुनाई और उस पर गाना लिखने को कहा, उस पर मजरूह की कलम ने जो गाना लिखा उस का मुखडा था कि उनके गेसू बिखरे बादल आए झूम के। मजरूह के लिखने का ये वह अंदाज़ था जिसने नौशाद जैसे अज़ीम संगीतकार को अपना दीवाना बना लिया था।
1946 में फिल्म शाहजहां में जब पहली बार उन्हें अपने हुनर का जलवा दिखाने का मौका मिला तो वो संगीत प्रेमियों के दिलों पर पूरी तरह छा गए। इस फिल्म में मजरूह ने कई तरह के गाने लिखे। कर लीजिए चल कर मेरी जन्नत के नजारे और जब दिल ही टूट गया तो जी कर ही क्या करेंगे जैसे गानों ने इस फिल्म को कामियाबी की मंजिलों तक पहुंचाया और खुद मजरूह को भी एक नई पहचान दे गए।
1949 में उन्हें एक बडा ब्रेक फिल्म अंदाज़ में मिला और उस फिल्म में नौशाद की धुनों पर जिस तरह के गाने मजरूह ने लिखे वह दिल के अंदर घर कर जाने वाले थे। हम आज कहीं दिल खो बैठे, कोई मेरे दिल में खुशी बन के आया, झूम झूम के नाचो आज, टूटे ना टूटे साथ हमारा, उठाए जा उनके सितम और डर ना मुहब्बत कर ले जैसे गानों में मजरूह ने जिस बेबाक अंदाज़ से जिन्दगी और मुहब्बत को पेश किया वह काबिले तारीफ था। इस फिल्म के बाद मजरूह के पास काम की कमी नही रही और वह सारे संगीतकारों के चहेते बन गए।
मजरूह सुलतानपूरी ने हर दौर के महान संगीतकारों के साथ काम किया। नौशाद,ओ पी नय्यर और आर डी बर्मन से लेकर जतिन ललित और ए आर रहमान जैसे संगीतकारों की धुनों पर मजरूह के गानों ने खूब जलवे बिखेरे।
शाहजहां, अंदाज, आरज़ू, आर पार, पेईंग गेस्ट, नौ दो गयारह, दिल्ली का ठग, काला पानी, सुजाता, बाम्बे का बाबू, बात एक रात की, ममता, तीसरी मंज़िल, अभिमान, यादों की बारात, हम किसी से कम नहीं, कयामत से कयामत तक, जो जीता वही सिकंदर और खामोशी जैसी यादगार फिल्मों में मजरूह ने के एल सहगल से राकुमार और आमिर खान जैसे सुपरस्टारों के लिए गाने लिखें है।
मजरूह ने हर तरह के गाने लिखे। तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है, रात कली इक ख्वाब में आई, ओ मेरे दिल के चैन, चलो सजना जहां तक घटा चले, चुरा लिया है तुम ने जो दिल को, छोड दो आंचल ज़माना क्या कहे गा, आजा पिया तोहे प्यार दूं, अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी, बचना ऐ हसीनों और बाहों के दरमियां जैसे गानों में अगर देखा जाए तो मुहब्बत के हर पल का मज़ा रखा है। बेचैनी, तन्हाई, तड़प, मिलन और चंचलता का पूरा रंग इन गानों में देखने को मिलता है। यही नहीं पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा और रूक जाना नहीं तू कहीं हार के जैसे गाने भी मजरूह की कलम से ही निकले हुऐ शाहकार हैं जिसने नौजवानों के अंदर हौसले को जन्म दिया है। एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल जैसे गानों से मजरूह की महान्ता का बडे अच्छे अंदाज़ से पता लगाया जा सकता है।
पूरी दुनिया ने मजरूह की सलाहियतों का लोहा माना था। उन पर अवॉर्डों की बारिश हुई थी। दादा साहब फालके अवॉर्ड तक उनकी झूली में आ चुके हैं। इसके अलावा और कई अवॉर्डों से उन्हें सम्मानित किया गया। फिल्म दोस्ती के सुपर हिट गीत चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे के लिए उन्हें फिल्मफेयर अवॉर्ड भी दिया गया था।
चार दहाईयों तक अपनी शायरी और अपनी गीतों से संगीत प्रेमियों के दिलों पर दस्तक देने वाले मजरूह ने करीब तीन हज़ार से ज्यादा गाने लिखे।

Thursday, 1 October 2009

कहां है गांधी के सपनों का हिन्दुस्तान?

एक ऐसा इंसान जिसने हिन्दुस्तान को एक महान देश बनाने के लिए अपने जान की कुर्बानी दी आज उस का जन्म दिन मनाया जा रहा है मगर उसके सपनों का भारत जिस के लिए उसने कुर्बानी दी उसका वजूद खोता नज़र आ रहा।
गांधी एक ऐसा नाम है जिसने दुनिया में सिर्फ मोहनचंद के रूप में ही ज़िन्दगी नही गुज़ारी बल्कि उस ने पूरी दुनिया में हिन्दुसतान और उस की तहज़ीब को पेश किया। अपने उसूलों और सिद्धान्तों से गांधी ने पूरी दुनिया को अपना एहतराम करने पर मजबूर कर दिया। दुनिया ने यहां तक माना था कि गांधी के उसूल कामियाबी में मददगार हैं। एक अच्छा इंसान होने के साथ साथ गरीबों और समाज के हर तबके से बराबर जुड़े रहने वाले मोहनदास करमचंद गांधी ने पूरे हिन्दुसतान को साथ लेकर हिन्दुसतान की आज़ादी के सपने देखे। हिन्दु, मुसिलम, सिख और ईसाई के अलावा पूरे हिन्दुसतान को साथ लेकर चलने वाले बापू को अपना मकसद हासिल करने की राह में हज़ारों मुशकिलें आईं। आज़ादी के लिए बार-बार जेलों में जिंदगी गुज़ारने पर मजबूर होना पड़ा। पर बापू ने तो आज़ाद हिन्दुसतान का सपना देखा था। उसे महान भारत का ताज देना चाहा था। सियासत के गलत नजरियों से पाक कराने का सपना देखा था। तमाम तरह की गंदगियों से साफ भारत का ख्वाब देखा था। लेकिन वो जिंदगी ही क्या जिस में आदमी को सब कुछ हासिल हो जाए। कहा जाता है कि अकसर आदमी जो चाहता है नहीं मिलता, यही हुआ था गांधी जी के साथ भी उन्हों ने देश तो आज़ाद करवा दिया मगर इस के लिए जो सपने उन्होंने देखे थे वह पूरे ना हो सके। उनके वह सिद्धांत जो हिन्दुसतान को ऊंचाईयों तक ले जाने वाले थे वह भारत का बुरा चाहने वालों की आंखों में खटकने लगे और इस का नतीजा ये हुआ कि मुल्क आज़ाद होने के एक साल बाद उनका कत्ल कर दिया गया।
गांधी जी के देहान्त के बाद इस बात पर तो काफी शोर मचा की देश उन्ही के सिद्धानतों पर चलेगा मगर ऐसा हुआ नहीं। गांधी जी की सारी कुरबानियां तकरीबन बेकार ही साबित हुईं, उन्हों ने मुल्क को ज़रूर आज़ाद करवा दिया, यहां की जनता को आज़ादी की सुबह ज़रूर दिखला दी मगर जिस भारत की आरज़ू थी शायद वह आज तक नहीं बन सका।
इस के क्या असबाब हैं? अगर इस सवाल का जवाब तलाश करने की कोशिश की जाए तो शायद ये अंदाज़ा लगाना ज़्यादा मुशकिल न होगा कि आज़ादी के बाद लोगों ने लिखने और बोलने के लिए तो गांधी के उसोलों को इस्तेमाल किया मगर जब कुछ करने की बात आई तो अपने उसूल बना ड़ाले, अपने हिसाब से कौम को रास्ता दिखाने की कोशिश करने लगे और इसी सूरत में फंस कर वह भारत को एक ऐसी तारीख़ दे गए जिस में लोगों का ख़ून बहा, दुलहनों की मांग सूनी हुई, सुहागनों की चूड़ियां टूटीं, बहनों की राखी का सहारा टूटा, माओं की गोद सूनी हुई और बच्चे बाप के कंधों से महरूम हुए। तारीख़ गवाह है कि बेबुनियाद उसोल ने हिन्दुस्तान को सोने की चिड़िया से एक खौफनाक सूरतेहाल में तबदील कर दिया।
गांधी जी का तो ये मानना था कि हिन्दुस्तान अगर तलवार के रास्ते को अपनाता है तो हो सकता है उसे फौरन कामियाबी मिल जाए लेकिन इस सूरत में तशद्दुद से भरा भारत मेरे दिल का टुकड़ा नही हो सकता, पूरी दुनिया को रास्ता दिखाने के लिए हिन्दुस्तान का यही मिशन होना चाहिए कि जो बात अख़लाकी तौर पर गलत है वो सियासी तौर पर भी गलत है। मगर आज की सूरतेहाल इस के बिलकुल मुखालिफ है। गांधी और उनके दौर के महान नेताऔं के बाद जिन नेताओं ने जन्म लिया उन्हों ने तलवार के रास्ते से भारत हासिल करने की कोशिश की। क्या सिखों को कत्लेआम इस बात का सबूत नहीं, क्या अयोध्या में हुए बाबरी इंहेदाम के बाद बहने वाले ख़ून इसी बात की गवाही नहीं दे रहे, क्या गुजरात में मोदी और उसके कारकुनों के जरिए ढाए जाने वाले मज़ालिम यही दास्तान नहीं बयान कर रहे। क्या 2003 में अहमदाबाद से लेकर गुजरात के बड़े शहरों की फज़ाओं में कमसिन लड़कियों की चीख़ें और अपनी इज़्ज़त की हिफाज़त के लिए गूंजने वाली सदाऐं इस का सुबूत नहीं हैं। अख़लाक और किरदार की सारी हदों को तोड कर जो माहौल पैदा किया गया था शायद अगर आज गांधी जी भी होते तो ना जीने की दुआऐं करते। आज के इस दौर में अख़लाक वो किरदार सियासी मैदान में कोई माना नहीं रखता।
तकरीबन चार पांच दशक पहले फिल्मी दुनिया में आला ख़ानदान की लडकियां कम ही नज़र आती थी। अकसर वो औरतें जो चकलों और मुजरों पर शाइकीन का दिल लुभाती थी वही बड़े पर्दे पर भी नज़र आती थी। मगर आज वो हालात ख़त्म हो गए, सोचने के अंदाज़ बदल गए, आज हर बड़े बाप की बेटी अदाकारा बनने के ख़्वाब संजोती है। ठीक इसी तरह पहले कौम की ख़िदमत करने के जज़्बे से लोग सियासत में कदम रखते थे। मगर आज लोग अपनी बिज़नेस की दुकान चमकाने के लिए सियासत में आते हैं। उन के यहां अख़लाक की कोई अहमियत है ना किरदार कोई माना रखता है। जिस में उनका फायदा हो वह चीज़ ठीक होती है चाहे उस से तहज़ीब का ख़ून हो या समाज़ की लानत का सामना करना पड़े।
सियासत के ठेकेदारों ने आज सियासत को नया अंदाज़ दे दिया है, जिस का नतीजा साफ देखने को मिल रहा है। हर कोई सहमा हुआ है, ख़ौफ का साया हर किसी की आंख़ों के सामने लहरा रहा है। आज हिन्दुस्तानियों ने ख़ून और लहू के ऐसे मंज़र देख लिए है कि इन के दिल ख़ौफ से कांप रहे हैं। पुरसकून और अमन व अमान से लबरेज़ भारत का सपना देख कर उसे आज़ादी दिलाने की राह में मौत को गले लगाने वाले शहीदों की रूहें आज शर्मसार हो रही हैं।
आज सब कुछ बदल चुका है। जहां गांधी ने अपने आप को समाज के सबसे निचले दरजे के लोगों के लिए वक्फ़ किया वहीं आज के सियासत दान कारपोरेट सेक्टर के बड़े बड़े लोगों के तलवे चाटने पर खुश हैं। जहां गांधी जी हर वक्त लोगों के साथ बगैर सिक्योरिटी के घूमते थे, वहीं आज के भारती नेता 50 से ज्यादा पुलिस वालों को साथ लेकर चलते हैं। जहां गांधी रेल के जनरल डिब्बों में जिंदगी भर सफर करते रहे वहीं आज के नेता एसी से नीचे की सोचते तक नहीं। कुछ लोगों ने इकोनोमी क्लास में सफ़र करने का हौसला तो दिखाया है मगर कब तक यह होगा? शायद पहली और आख़िरी बार चेक करने के लिए सफर कर रहे हैं और इस के बाद दोबारा ऐसी हिम्मत न दिखा सकें। क्योंकि शशि थरूर जैसे पढ़े लिखे और महान नेता जब इकोनमी क्लास को भेड़ बकरियों की क्लास बताऐंगे तो कौन उस में सफर करेगा। सोचना तो यही है कि पांच सितारा होटलों मे जिंदगी गुजारने वाले ये नेता गांधी जी का सपना कैसे पूरा करेंगे।

Wednesday, 30 September 2009

मन्ना डे जादुई आवाज़ का बेताज बादशाह

ये कोई उस वक्त की बात है जब पूरी दुनिया रफी, लता, मुकेश और तलअत महमूद के गाने सुनकर उनके सुरों पर झूमती थी, उस वक्त इन महान गायकों में से एक महान गायक जिस ने अपनी आवाज़ की दिलफरेबीयों से पूरी दुनिया को मदहोश कर रखा था वह ख़ुद मन्ना ड़े सुरों पर थिरकता था। जी हां संगीत प्रेमियों के दिल की हर धडकन में धडकने वाली आवाज़ के मालिक मो. रफी के दिलों में मन्ना डे के गाने बजते थे। इस का इज़हार रफी ने कुछ इस तरह किया था कि आप हमारे गाने सुनते हो और में सिर्फ मन्ना डे यानी प्रबोधचन्द्र डे की आवाज़ पर झूमता रहता हूं। उन के इसी आवाज़ और फिल्मी दुनिया को दिए योगदान का ही नतीजा है कि आज उन्हें फिल्म जगत का सब से बड़ा अवॉर्ड दादा साहब फाल्के पुरूस्कार देने का एलान किया गया है।
सीधे साधे और आम आदमियों में खोए रहने वाले मन्ना दा को लगाव था कुश्ती और मुक्केबाज़ी से, मगर चाचा का संगीत प्रेम दिलों में घर कर गया और मन्ना दा भी सुरों का बाग बनाने का सपना देखने लगे। उस्ताद दाबिर ख़ां की हिदायत में संगीत सीखना शुरू किया और आगे चल कर उस्ताद अमान अली खां और उस्ताद अब्दुल रहमान खां की परवरिश ने उन्हें कुन्दन बना दिया।
23 साल की उम्र में मन्ना डे ने अपनी आवाज़ का जादू जगाने के लिऐ मुम्बई जाने का फैसला किया और चाचा के हमराह मायानगरी पहुंच गए। उनके सहायक बनकर काम करना शुरू किया और कुछ दिनों तक सचिन देव बर्मन के भी सहायक रहे।
1943 में फिल्म तमन्ना से जब मन्ना दा ने अपना कैरियर शुरू किया था तब फिल्मी दुनिया उनके लिए अजनबी थी, आगे क्या होगा इसका कोई अंदाज़ा ना था। मगर जब उनकी आवाज़ लोगों के कानों तक पहुंचने में कामयाब हुई तो वह हर संगीतकार के चहेते बन गए। तमन्ना में उनकी आवाज़ में गाया जाने वाला हिट हुआ और उन की आवाज़ को एक पहचान मिल गई। मन्ना डे के लिऐ ये अच्छा शगुन साबित हुआ और 1950 में रिलीज़ होने वाली फिल्म मशाल में उनके जरिये गाये जाने वाले गाने उपर गगन विशाल ने इनकी पहचान में चार चांद लगा दिए।
एक ऐसे वक्त में जब हिन्दुस्तान में क्लासिकी संगीत दम तोड़ रही थी और उस की जगह पॉप संगीत अपने पैर जमा रही थी उस वक्त मन्ना डे ने क्लासिकी संगीत का सहारा बनकर उसे दोबारा जिन्दा किया। इस में कोई शक नहीं की मन्ना डे एक पुरकशिश आवाज़ के मालिक थे मगर ये भी उतनी ही बड़ी सच्चाई है कि वह एक सुलझे हुऐ आदमी है, वह अपने काम के तईं ईमानदार थे और उन्हों ने किसी खास बैनर के साथ बंधकर काम नहीं किया। एक खुद्दार और महान आदमी की तरह जिंदगी की सच्चाईयों को तसलीम किया और ख़ुद आगे बढ़ते रहे। मगर शायद उनका ऐसा करना उनके हक में फायदेमंद ना साबित हुआ। उन्हें बड़े बैनर की फिल्मों में काम करने का मौका बहुत कम मिला। मगर वो आवाज़ ही क्या जिसका जादू सर चढ़कर ना बोले, और वह सुर ही क्या जो राही के कदम ना रोक दे, मन्ना डे की आवाज़ में एसी मिठास थी की उनके पास काम की कमी नहीं रही और उन्होंने बी और सी ग्रेड की फिल्मों में ही अपना अकसर गाना गा कर अपनी एक अलग पहचान बना ली। आज मन्ना के इतने चाहने वाले हैं जिसके लिए बड़े बड़े कलाकार तरस्ते रहते हैं।
तमन्ना से शुरू होने वाला ये सफर बड़ी शान से चलता रहा। इस बीच ऐ मेरी जोहरा जबीं.., ऐ भाई ज़रा देख के चलो.., यारी है ईमान मेरा यार.., मुड मुड के ना देख.., ये इश्क इश्क है.., ये रात भीगी-भीगी.., कस्मे वादे प्यार वफा सब.., लागा चुनरी में दाग.., जिंदगी कैसी है पहली हाय.., प्यार हुआ इकरार हुआ.., ऐ मेरी जोहरां जबी.., ऐ मेरे प्यारे वतन.., पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई.., इक चतुर नार करके सिंगार.., तू प्यार का सागर है.., पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई.., जैसे कई सदाबहार गाने मन्ना डे ने गाए हैं। इन सारे गानों में संगीत प्रेमियों को अलग अलग मन्ना डे देखने को मिल सकते हैं। इस की वजह कुछ और नही बल्कि उनकी मधभरी आवाज़ है।

Sunday, 27 September 2009

मेरी आवाज़ ही पहचान है मेरी

कल एक ऐसी आवाज़ की मलिका का जन्म दिन है जिस के सुरों पर पूरी दुनिया झूमती है। जी हां कल लता मंगेशकर 80 साल की हो जाएंगी, मगर ये भी एक सच्चाई है की लता जी की आवाज़ से उन की उम्र का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता है। 13 साल की उम्र से गाने का सफ़र शुरू करने वाली लता की आवाज़ में वो जादू आज भी उसी हालत में बरकरार है जैसा शुरूआती दिनों में था। मंदिरों में बजती घंटियों के जैसा जादू लिये लता की आवाज़ ने कई नसलों को अपना दीवाना बनाया। उन की आवाज़ की खनक आज भी सीधे दिल की गहराईओं में उतर जाती है।

28 सितम्बर 1929 को इन्दोर में गायक पिता दिनानाथ मंगेशकर शास्त्रीय के घर पैदा होने वाली लता ने अपना पहला गाना मराठी फिल्म किटी हसाल (1942) में गाया था। पिता को लता का फिल्मों में गाना नापसंद था इसलिए यह गाना फिल्म से हटा लिया गया। मगर जब पिता का निधन होगया और जिंदगी के सर से बाप का सहारा उठ गया तो लता ने घर चलाने के लिए फ़िल्मो मे काम करना शुरू कर दिया। मजबूरियों ने आवाज़ और सुरों की इस मलिका को अदाकारा बना दिया। हालाँकि अदाकारी मे वे सफल नही हो सकीं। मगर तकदीर तो उन्हें बुल्बुले हिन्द बनाने वाली थी, उन का जादू पूरी दुनिया के सर चढ़ कर बोलने के लिए था और शायद यही वजह है कि उन्हें अदाकारी के मैदान में नाकामियों का सामना करना पड़ा।

शुरू के कुछ दिनों में तो लता की आवाज़ के चर्चे तो हुए मगर उन्हें वह कामियाबी ना मिली जिसकी उनको तलाश थी। फिर फिल्म महल लता की जिंदगी में आई और लता को इतनी उंचाई पर पहुंचा दिया जहां पहुंचने का ख्वाब तो हर कलाकार देखता है मगर कम ही लोग वहां तक पहुंच पाते है। अपने वक्त की लाजवाब अदाकारा मधुबाला पर फिल्माया गया उनका गाना "आयेगा आने वाला" सुपर डुपर हिट रहा। यहां लता की जिंदगी का एक दौर ख़्तम होता है और फिर शुरू होता है कामियाबियों का ना ख़्तम होने वाला सिलसिला। 1949 में 'बरसात', 'दुलारी', 'महल' और 'अंदाज़' के गानों ने धूम मचाई और लता सब की पसंद बन गईं। उस वक्त शमशाद बेग़म, नूरजहाँ और ज़ोहराबाई अंबालेवाली जैसी वज़नदार आवाज़ वाली गायिकाओं का राज चलता था मगर लता के हिम्मत और हौसले ने उनको एक अलग पहचान दी और दुनिया ने ये मान लिया की ये नई आवाज़ दूर तक जाने वाली है।

ये एक हकीकत है कि 1950 के दशक में लता का सिक्का बॉलीवुड मे जम चुका था और वह किसी भी संगीतकार के लिए कामयाबी हासिल करने की कुंजी बन गईं थी। इस के बाद लता ने कभी पीछे मुड़कर नही देखा।

लता मंगेशकर अब तक 20 से अधिक भाषाओं मे 30000 से अधिक गाने गा चुकी हैं।

भजन, ग़ज़ल, क़व्वाली शास्त्रीय संगीत हो या फिर आम फ़िल्मी गाने लता ने सबको जिस महारत से गाया वह उनके एक महान फनकार होने की दलील है।

यही वजह है कि आज उनके पास अवॉर्ड की भरमार है। जहां फ़िल्म जगत का सबसे बड़ा सम्मान दादा साहब फ़ाल्के अवार्ड उनके नाम है वहीं देश का सबसे बड़ा सम्मान 'भारत रत्न' भी उनकी झोली में आ चुका है।

हमेशा नंगे पाँव गाना गाने वाली लता ने बहुत खूबसूरत गीत गाए है। आ जा अब तो आ जा, आ जाओ तडपते हैं अरमां, आ मेरी जान मैं तुझ में अपनी जान रख दूँ , ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हो हमारे करम, आईना वो ही रहता हैं, आज दिल पे कोई जोर चलता नहीं, आज कल पाँव जमींपर नहीं पडते मेरे, कांटों से खिंच के ये आंचल, तोड के बंधन बांधी पायल, आज सोचा तो आँसू भर आए, आजा पिया तोहे प्यार दूँ , आ जा रे परदेसी, अखियों को रहने दे,अखियों के आसपास, आप का खत मिला, आप का शुक्रिया, आप मुझे अच्छे लगने लगे, आप यूँ फासलों से गुजरते रहे, दिल पे कदमों की आवाज आती रही, दिल दीवाना बिन सजना के माने ना और जिया जले जां जले जैसे गानों में उन्हों ने मधुबाला से लेकर माधुरी और काजोल तक तमाम ही अदाकाराओं को अपनी आवाज़ दी और उन्हें बलंदियां छूने मे मदद की।

Saturday, 26 September 2009

सदाबहार अभिनेता देव आनंद

हिन्दुसतानी फिल्मी दुनिया में हजारों चेहरों ने अब तक जन्म लिया, अपनी अदाओं और अपने जलवों से लोगों को लुभाया, एक वक्त तक परदे पर राज भी किया मगर कामियाबी का ये सफर ज्यादा देर तक कायम न रह सका और सभी एक खास वक्त के बाद मुरझाए गुलाब की तरह बेमाना हो कर रह गए।

इन में कुछ लोग ऐसे हैं जिनके बहारों के गुलशन में कभी पतझड़ नही आया और उन की कामयाबी के फूल मुरझाए नहीं। उन्ही लोगों मे से एक पंजाब के गुरदासपुर कस्बे में 26 सितम्बर 1923 को जन्मे देव आनंद भी है। लाहौर कालेज से इंगलिश से ग्रेजुऐशन करने वाले देव का बचपन परेशानियों से घिरा रहा। एक वकील और आजादी के लिए लडने वाले पिशोरीमल के घर पैदा होने वाले देव ने रद्दी की दुकान से जब बाबूराव पटेल द्वारा सम्पादित फिल्म इंडिया के पुराने अंक पढ़े तो उस की आंखों ने फिल्मों में काम करने का सपना देख डाला, और वह मायानगरी मुम्बई के सफर पर निकल पडा।

तीस रूपए जेब में ले कर पिता के मुंबई जाकर काम न करने की सलाह के विपरीत देव अपने भाई चेतन के साथ फ्रंटियर मेल से 1943 में बंबई पहुँच गया। देव ने ये सपने भी ना सोचा होगा की कामियाबी इतनी जल्दी उसके कदम चूमेगी मगर ये तीस रुपए रंग लाए और जाएँ तो जाएँ कहाँ का राग अलापने वाले देव आनंदको मायानगरी मुम्बई में आशियाना मिल गया।

सन 1946 में हम एक हैं में पहली बार देव आनंदको काम करने का मौका मिला मगर उनकी सबसे पहली कामियाब फिल्म जिद्दी साबित हुई। जिद्दी ने देव आनंदको नई ऊंचाइयां अता कीं। यहां से जो सिलसिला शुरू हुआ वह दूर तक देव के हक में रहा और एक वक्त ऐसा आया जब देव आनंदहिन्दुसतानी फिल्मी दुनिया के उस्ताद कलाकारों में शुमार किए जाने लगे।

देव आनंदने लव एट टाइम्स स्क्वैर, हम नौजवान, देश परदेस, तेरे मेरे सपने, हरे रामा हरे कृष्णा, जॉनी मेरा नाम, ज्वैलथीफ, हम दोनों, माया, रूप की रानी चोरों का राजा, बम्बई का बाबू, लव मैरिज, काला पानी, दुश्मन, टैक्सी ड्राइवर, नौ दो ग्यारह, पेइंग गेस्ट, सी आई डी, फंटूश, बाज़ी बेमिसाल फिल्मों को अपनी अदाकारी के जरिए कामियाब बनाया। यही नहीं उन्होंने बतौर लेखक 1993 में प्यार का तराना नामी फिल्म की। इस के अलावा बतौर निर्माता 1998 में मैं सोलह बरस की और 1993 में प्यार का तराना लेकर सामने आऐ। यही नही बतौर निर्देशक लव एट टाइम्स स्क्वैर, मैं सोलह बरस की, गैंगस्टर और हम नौजवान जैसी फिल्में भी की।

देव आनंदअपनी खास स्टाइल के लिए जाने जाते हैं। उन्हों ने अपने किरदारों में नौजवानों की उमंगों, तरंगों और चंचलता को बहुत ही खूबसूरत अंदाज से पेश किया है।

देव आनंदआदर्शवाद और व्यवहारवाद में नहीं उलझते और न ही उन का किरदार प्रेम की नाकामियों से दो-चार होता है। अपनी अदाकाराओं के छेड़खानी, शरारत और फ्लर्ट करने वाला आम नौजवान देव का नायक रहा। देव ने अपने किरदारों में जवानी के हर मौसम का लुत्फ लिया। जवानी के तमाम दबे-कुचले अरमानों को पूरे रस के साथ जिया और नौजवानों के चहेते बन गए।

नौजवानों के जज़बात को परदे पर पेश करने वाले खूबसूरत देव हमेशा ही खूबसूरत लडकियों से घिरे रहे। हज़ारों दिलों की धडकन रहे देव हसीनाओं का सपना बन चुके थे। मगर देव फिल्मी दुनिया की रीत ने देव को भी अपने चपेट में ले लिया और वह भी मशहूर अदाकारा सुरैया के हुस्न के दीवाने बन गए। यही नहीं वह भी देव की दीवानी हो चुकी थी। 1948 में बनी ‘विद्या’ फिल्म की नायिका सुरैया थी। इसके सेट पर ही दोनों में प्यार हुआ। 1951 तक दोनों ने सात फिल्मों में साथ काम किया। मगर अफसोस दोनों के साथ रहने का ख्वाब पूरा ना हो सका। देव ने अपने टूटे प्यार का इजहार कई बार किया है। बाद में ‘टैक्सी ड्राइवर’ की हीरोइन मोना याने कल्पना कार्तिक से फिल्म के सेट पर शादी हो गई। मगर सुरैया ने देव के अलावा किसी और को गवारा ना किया।

देव आनंदको उनकी बेहतरीन अदाकारी के लिए कई पुरस्कार मिले। 1967 में फिल्म गाइड के लिए फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार और 1959 में फिल्म काला पानी

के लिए एक बार फिर फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार मिला। देव आनंद को सन 2001 में भारत सरकार ने कला क्षेत्र में पद्म भूषण से भी सम्मानित किया था।

Tuesday, 15 September 2009

लहरों का तड़पना...

आज बहुत दिनों बाद साहिल पर जाने का इत्तेफाक हुआ था, तुम से दूर हुए शायद एक साल का लंबा वक्त गुज़र चुका था, तेज़ हवा के झोंके थे और लहरों की पहुंच से दूर रेत का उड़ता हुआ मंज़र, तंहा खुजूर के पेड़ के नीचे में भी तनहा था, ये और बात है मेरे साथ कुछ हसीन यादें भी थीं, शाम का वक्त हो रहा था सूरज अपने बिस्तर समेट रहा था, अचानक लहरों में तुगयानी सी आई और एक सिकंड़ के अंदर हज़ारों लहरें साहिल पर अपना सर पटक कर चली गईं, मेरी निगाहें खुद ब खुद सलेटी मायल सुर्ख आसमान के किनारे बहुत नीचे ढलान पर लुढ़कते हुए आफताब की तरफ उठ गईं, आफताब बुझते दिए की तरह ज़ोर लगा कर रौशन होने की कोशिश कर रहा था, मेरे ख्याल में वह हादसा भी इसी वक्त हुआ था जब तुम ने पहली बार अपने हसीन पांव समंदर के खारे पानी में उतारे थे, हां, शायद तुम्हारे पैरों की मिठास पाकर उस वक्त भी लहरों ने तुम्हारी कदमबोसी की थी, आज जब लहरों को तुम्हारे नाजुक पैर को छूने के लिए ठीक उसी वक्त तडप तडप कर साहिल पर सर पटकते देखा तब आंखों ने साथ छोड दिया और उन्ही लहरों के साथ रो पड़ी, जो मेरी तरह तुम्हारा इन्तेज़ार कर कर के मर रही हैं, ख्यालों में शोर मचा हुआ था काश तुम अपने पैर समंदर में न धुले होते तो आज इन लहरों का ये हाल न होता।

Tuesday, 8 September 2009

दम मारो दम...

अपनी मीठी आवाज़ से राह चलते राही के कदम रूकने पर मजबूर करदेने वाली आवाज़ो की मलिका आशा भोसले आज 76 साल की हो गईंहै। फिल्म चुनरिया में सावन आया से अपनी प्यारी आवाज़ का सफरशुरू करने वाली आश आज भी संगीतकारों की पहली पसंद बनी हुई है।साल की उम्र हो जाने के बाद भी उन की आवाज में ऐसीमासूमियत बाकी है कि वो नई और छोटी उम्र वाली हिरोईनों कीआवाज बन जाती हैं। गीत, गज़ल, लोरी, भजन, राष्ट्रीय संगीत औरपॉप संगीत सभी को अपनी आवाज़ से सजाने वाली आशा फिल्मीदुनिया की वो महान हस्ती हैं जिनके चाहने वालों की एक लंबी तादादहै। 76

अपने शुरूआती दौर में नाकामियों की कडवाहटें पीने वाली आशा को जब संगीतकार ओपी नय्यर का साथ मिला तो उनकी आवाज के जादू ने सर चढ़ कर बोला। 1957 में रिलीज होने वाली बीआर चोपड़ा की फिल्म नयादौर उन की जिन्दगी में कामियाबियों के सौगात लेकर आई। उस के बाद से तो आशा भोसले ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करती रहीं यहां तक की संगीतकार और फिल्मकार उन्हें अपनी कामयाबी का ज़ीना बनाने लगे।

मशहूर डांसर हेलन की आवाज़ बनने वाली आशा ने उनके डांस स्टेप्स को समझते हुए उनकी कामयाबियों में हाथ बटाया। पिया अब तो आ जा, वो हसीना जुलफों वाली और ये मेरा दिल प्यार का दीवाना जैसे सुपर हिट गानों के जरिये तरक्की का सफर तय करने वाली आशा ने जब ऊमरावजान में दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए, इन आंखों की मस्ती के मस्तीने हजारों हैं, ये क्या जगह है दोस्तो और जुस्तुजू जिस की थी जैसी ग़ज़लों को जब अपनी आवाज से सजाया तो सारे संगीत प्रेमी झूम उठे।

ये तो हकीकत है कि नया दौर(1957),तीसरी मंजिल(1966),ऊमरावजान(1981) और रंगीला(1995) आशा भोसले की करियर के चार मील के पथ्थर माने जाते हैं। नया दौर में मांग के साथ तुमाहरा और उड़ें जब जब जुल्फें तेरी ने आशा को एक लोकप्रिय गायिका के रूप में दुनिया के सामने पेश किया। मगर इस के बावजूद आशा ने और बहुत सारी हिट गीतों को अपनी आवाज़ दी है।

चौदह ज़बानों मे गीत गाने वाली आशा ने तकरीबन 12,000 गाने रिकॉर्ड किए हैं। इस लंबे सफर में उन की कामयाबियों को काफी सराहा गया। अवॉर्ड भी दिए गऐ।

गरीबों की सुनो(दस लाख, 1966), परदे में रहने दो(शिकार, 1968), पिया तू अब तो आजा(कारवां,1971), दम मारो दम(हरे राम हरे किर्शना, 1972), होने लगी है रात(नैना, 1973), चैन से हमको कभी(परान जाए पर वचन न जाए, 1972) और ये मेरा दिल(डॉन, 1978) के लिए उन्हें बेस्ट फीमेल पलेबैक सिंगर का अवॉर्ड मिला। इस के अलावा बहुत सारे अवार्ड उनकी झोली में आए।

Tuesday, 1 September 2009

कैसे काटें केक?


आज जब की सारे दोस्त बधाई और हैप्पी बर्थ ड़े का पैगामभेज रहे है, साहिर की नज़्म के ये कुछ जुम्ले मेरी जबानपर खुदबखुद रेंगने लगे है।

ये ऊँचे ऊँचे मकानों की देवड़ीयों के बताना या कहना
हर काम पे भूके भिकारीयों की सदा
हर एक घर में अफ़्लास और भूक का शोर
हर एक सिम्त ये इन्सानियत की आह-ओ-बुका
ये करख़ानों में लोहे का शोर-ओ-गुल जिस में
है दफ़्न लाखों ग़रीबों की रूह का नग़्मा

ये शरहों पे रंगीन साड़ीओं की झलक
ये झोंपड़ियों में ग़रीबों के बे-कफ़न लाशें
ये माल रोअद पे करों की रैल पैल का शोर
ये पटरियों पे ग़रीबों के ज़र्दरू बच्चे
गली गली में बिकते हुए जवाँ चेहरे
हसीन आँखों में अफ़्सुर्दगी सी छाई हुई

ये ज़ंग और ये मेरे वतन के शोख़ जवाँ
खरीदी जाती हैं उठती जवानियाँ जिनकी
ये बात बात पे कानून और ज़ब्ते की गिरफ़्त
ये ज़ीस्क़ ये ग़ुलामी ये दौर-ए-मजबूरी
ये ग़म हैं बहुत मेरी ज़िंदगी मिटाने को

कुछ ऐसी ही हाल है हमारी इस सोने की चिडिया का भी। हर तरफ बेयकीनी की सूरतेहाल है, मुस्तकबिल का कोई भरोसा नही कि जिंदगी किसी अच्छे मकाम तक जाएगी भी या नही, जम्हूरियत की खोखली बुनियादों ने सपने पालने का भी हक छीन लिया है, दर्द, आंसू, आह, कड़वाहटें, तलख़ियां जैसी सौगातें बांट रहा है हिन्दुस्तान। भुकमरी, गरीबी, सूखा, मंहगाई और हर वक्त अपने आप को खो देने का खौफ है, हर तरफ सिसकियो और रोने की आवाज़ें पहरा दे रही है। मेरे चारों तरफ खौफनाक माहौल है... ऐसे में कौन काटे केक और कौन सेलिबरेट करे बर्थ ड़े।

Thursday, 27 August 2009

दिल जल्ता है तो जलने दे...

कहते है आवाजें मरती नही हैं आवाज़ें हमेशा जिंदा रहती है, कभी भीगे मुंडेरो तो कभी पानी के झरनों से कुछ मीठी आवाज़ें कानों मे रस घोलती रहती हैं। कुदरत ये तोहफा बस कुछ ही लोगों को देता है। वरना मुहम्मद रफ़ी, मन्ना डे, किशोर कुमार और इन जैसे बड़े गायकों की भीड़ में पहचान बनाना मामूली बात नहीं।

मगर पेशे से एक इन्जीनियर के घर में पैदा होने वाले मुकेश चन्द माथुर के अन्दर वह सलाहियत थी कि वह एक अच्छे सिंगर बन कर उभरें। यही हुआ, कुदरत ने उनके अंदर जो काबलियत दी थी वह लोगों के सामने आई और मुकेश की आवाज का जादू पूरी दुनिया के सर चढ़ कर बोला।

एक अदाकार बनने की हसरत दिल में लिए मुम्बई पहुंचने वाले सुरों के इस बादशाह ने अपना सफर 1941 में शुरू किया।

निर्दोष नामी फिल्म में मुकेश ने अदाकारी करने के साथ साथ गाने भी खुद गाए। उन्होंने सब से पहला गाना दिल ही बुझा हुआ हो तो गाया। इस में कोई शक नहीं कि मुकेश एक सुरीली आवाज के मालिक थे और यही वजह है कि उन के चाहने वाले सिर्फ हिन्दुस्तान ही नही बल्कि उन के गाने अमरिका के संगीत प्रेमियों के दिलों को भी ख़ुश करते रहते हैं।

के एल सहगल से मुतअस्सिर मुकेश ने अपने शरूआती दिनों में उन्ही के अंदाज़ में गाने गाए। मुकेश का सफर तो 1941 से ही शुरू हो गया था मगर एक गायक के रूप में उन्होंने अपना पहला गाना 1945 में फिल्म ‘पहली नजर’ में गाया। उस वक्त के सुपर स्टार माने जाने वाले मोती लाल पर फिल्माया जाने वाला गाना दिल जल्ता है तो जलने दे हिट।

शायद उस वक्त मोती लाल को उनकी मेहनत भी कामयाब होती नज़र आई होगी। क्योंकि वह ही वह जौहरी थे जिन्होंने मुकेश के अंदर छुपी सलाहियत को परखा था और फिर मुम्बई ले आए थे। कहा जाता है मोतीलाल ने मुकेश को अपनी बहन की शादी में गाते हुए सुना था।

के एल सहगल की आवाज़ में गाने वाले मुकेश ने पहली बार 1949 में फिल्म अंदाज से अपनी आवाज़ को अपना अंदाज़ दिया। उस के बाद तो मुकेश की आवाज हर गली हर नुक्कड़ और हर चौराहे पर गूंजने लगी। प्यार छुपा है इतना इस दिल में जितने सागर में मोती और ड़म ड़म ड़िगा ड़िगा जैसे गाने संगीत प्रेमियों के ज़बान पर चलते रहते थे।

फिल्मी दुनिया के बेताज बादशाह रहे राजकपूर का फिल्मी सफर मुकेश के बगैर अधूरा है। मुकेश ने राजकपूर के अकसर फिल्मों के गानों को अपनी मधुर आवाज से सजाया था। 1948 से शुरू होने वाला ये साथ आख़िरी दम तक बाकी रहा।

राजकपूर ने मुकेश के इस दुनिया से चले जाने के बाद मैंने अपनी आवाज़ कहीं खो दी है कह कर इस रिश्ते को पेश भी किया था। ऐसा भी नही था कि मुकेश ने सिर्फ राजकपूर के लिए ही गाने गाये हों बल्कि राजकपूर के साथ होने से पहले ही मुकेश की आवाज फिल्मी दुनिया में मक़बूल हो चुकी थी।

मुकेश के दिल के अरमान अदाकार बनने के थे और यही वजह है कि गायकी में कामयाब होने के बावजूद भी वह अदाकारी करने के शाइक़ थे। और उन्होंने यह किया भी मगर एक के बाद एक तीन फलॉप फिल्मों ने उनके ख्वाब चकनाचूर कर दिये और मुकेश यहूदी फिल्म के गाने में अपनी आवाज दे कर फिर से फिल्मी दुनिया पर छा गए।

मुकेश ने गाने तो हर किस्म के गाये मगर दर्द भरे गीतों की चर्चा मुकेश के गीतों के बिना अधूरी है। उनकी आवाज़ ने दर्द भरे गीतों में जो रंग भरा उसे दुनिया कभी भुला न सकेगी। दर्द का बादशाह कहे जाने वाले मुकेश ने अगर ज़िन्दा हूँ मै इस तरह से, ये मेरा दीवानापन है (फ़िल्म यहुदी से) ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना (फ़िल्म बन्दिनी से) दोस्त दोस्त ना रहा (फ़िल्म सन्गम से) जैसे गानों को अपनी आवाज़ के जरिए दर्द में ड़ुबो दिया तो वही किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार (फ़िल्म अन्दाज़ से) जाने कहाँ गये वो दिन (फ़िल्म मेरा नाम जोकर से) मैंने तेरे लिये ही सात रंग के सपने चुने (फ़िल्म आनन्द से) कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है (फ़िल्म कभी कभी से) चन्चल शीतल निर्मल कोमल (फिल्म सत्यम शिवम सुन्दरम् से) जैसे गाने गा कर प्यार के एहसास को और गहरा करने में कोई कसर ना छोड़ी। यही नहीं मकेश ने अपनी आवाज में मेरा जूता है जापानी (फ़िल्म आवारा से) जैसा गाना गा कर लोगों को सारा गम भूल कर मस्त हो जाने का भी मौका दिया। 14 लोरियां गा कर बच्चों को मीठी नींद सोने का मौका दिया।

दुनिया ने उनकी सलाहियतों का लोहा माना। फिल्म अनाड़ी (1958) के एक गीत के लिए उन्हें फिल्मफेयर अवॉर्ड से नवाज़ा गया। यह एज़ाज़ हासिल करने वाले वह पहले मर्द गायक थे। रजनीगन्धा फ़िल्म में कई बार यूं भी देखा है गाना गाने के लिये उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। इस के अलावा कई और भी पुरुस्कार उन्हें मिले।

सिर्फ 56 साल की उम्र पाने वाले मुकेश ने दुनिया में कई दौर देखे। दुखों को मुंह खोले अपने दरवाजे पर देखा, खुशियों को अपनी अधखुली खिड़कियों से झांकते देखा। आंसुओं को नैनों से बहते देखा तो मुस्कुराहटों को चेहरे पर फैलते देखा।

मगर कोशिश करने के फारमूले को थामे जिंदगी से मिलने वाले हर दर्द, हर आंसू, हर मुस्कान और हर खुशी को अपने दामन में समेटते हुऐ दर्द भरी आवाज़ का ये जादूगर पल दो पल के शायर की तरह हज़ारों चाहने वालों को रोता छोड़ कर दूसरी दुनिया को सिधार गया ...

Wednesday, 26 August 2009

छोटू ज़रा चाय लाना....

उर्वशी, लछ्मी और सुचित्रा नाम की तीन अदाकाराओं के घर पर पुलिस ने छापा मार कर वहां से बाल मज़दूरों को आजाद कराया। चर्चाऐं तो ऐसे हो रहीं थी कि ऐसा महसूस हो रहा था मानो जंग ही जीत ली हो। मगर क्या कर सकते हैं कभी कभी तो कोई भला काम होजाता है ऐसे में अगर उस पर भी वाह वाही न बटोरने को मिले तो काभी तकलीफ होगी। मगर क्या सिर्फ तीन लोगों के यहां से कुछ बच्चों को आज़ाद करा देने से बाल मज़दूरी खत्म हो जाएगी इसकी उम्मीद करना ज़रा मुश्किल है। इसकी वजह है और हम नीचे इसी को बयान करने की कोशिश कर रहे हैं।

छोटू ज़रा चाय लाना, अरे छोटू गाड़ी धुल दे साहब बाहर जा रहे हैं, पोछा मार दे छोटू, ज़रा गिलास देना छोटू, छोटू ये सामान निकाल देना, झाड़ू मार दे छोटू … ये वह आम जुम्ले हैं जो हर रोज हर लम्हा कान के परदों से टकराते रहते हैं, कहीं भी जाएं, दोस्तों के साथ चाय की दुकान पर या खाना खाने के लिये होटल, सामान लाने के लिये किराने की दुकान पर या फिर बस में सफर पर।

चाय, खाना, सामान देने वाला और किराया लेने वाला 7-8 साल की उम्र से लेकर 15-16 साल का कोई ना कोई बच्चा ही होता है। आस-पास ऐसे न जाने कितने छोटू और बहादुर हैं जो अपनी ज़िन्दगी गुजारने के लिये अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिये किसी की गुलामी तो किसी की नौकरी करते नज़र आते हैं। उस उम्र में जबकि उन के नाज़ुक हाथों में कलम होना चाहिये उनके नाज़क हाथ झाड़ू लगाने और बरतन धुलने पर मजबूर हैं, जब उनके कंधों पर किताबों का बस्ता होना चाहिये था उस उम्र में वह किसी मालिकन के साथ सब्ज़ी लाने के लिये इस्तेमाल हो रहे हैं। ये वह बच्चे हैं जो खानदान के सब कुछ है, अपने परिवार के माई बाप हैं। ये उस मुल्क की दास्तान है जहां बाल मज़दूरी पर पाबंदी है।

आज़ाद हिन्दुस्तान की ये एक सच्ची तस्वीर हैं। अगर यक़ीन न आए तो अपने आस पास देखिए इन बातों की सच्चाई खु़द-ब-खु़द सामने आजाएगी।

ये एक सच्चाई है कि हिन्दुस्तान जैसे आज़ाद मुल्क में एक अंदाज़ के मुताबिक 1 करोड़ 70 लाख बाल-मजदूर हैं। इसमें से 80 फीसद खेतों और कारखानों में काम करते हैं। बाकी खदानों, चाय बगानों, दुकानों और घरेलू कामों में हैं। इसमें से सबसे ज्यादा बच्चे तालीम से दूर हैं और खतरनाक हालतों में काम करते हैं। मुल्क के 1 करोड़ 70 लाख बाल-मजदूरों में से सिर्फ 15 फीसद को ही मजदूरी से आजादी मिल पायी है।

अगर देखा जाए तो यह चीज़ साफ तौर पर कही जा सकती है कि बच्चा मज़दूरी पर पाबंदी लगने के दो दहाईयां गुज़र जाने के बाद भी हालात वैसे के वैसे बने हुए हैं। शायद आगे भी ये सिल्सिला जारी रहे। क्योंकि जब तक बाल मज़दूरी के पीछे छुपी मजबूरियों को नही जाना जाता उस के खातमे के ख्वाब देखना महज़ जागती आंखों का ख्वाब होगा जिस की कोई हकीकत हो ही नही सकती।

आज भी हिन्दुस्तान के अंदर ऐसे लोगों की एक लंबी तादाद है जिन की आमदनी रोजाना 20 रूपये से भी कम है, गौर कीजिये इस दौर में जब्कि मंहगाई आसमान से बातें कर रही है, हर चीज़ की कीमतों में बेतहाशा इज़फा हो रहा है, 20 रूपये आमदनी वाला आदमी किस तरह खाएगा और अपने परिवार को खिलाएगा?

बाल मज़दूरी को खत्म करने के लिए कोशिश तो होनी ज़रूरी है मगर ये धयान रखना उस से ज्यादा जरूरी है कि आप जिस बच्चे को आजाद करा रहे हो वह कल क्या खाएगा या वह परिवार जो उस की कमाई से जीता है उस की हालत क्या होगी? क्या हिन्दुस्तान इस के लिए तय्यार है? अगर हां तो शायद कुछ अच्छी ख़बर आगे कुछ सालों में देखने को मिले। याद रहे कि भूके पेट पढ़ने में मन नहीं लगता है और मिड डे मील से सिर्फ बच्चे का पेट भरता है उस के मजबूर मां बाप और भाई बहनों का नहीं जो उसे उस की जान से ज्यादा प्यारे हैं।

Sunday, 23 August 2009

बन के परवाना तेरी आग में जलना है हमें

ज़िन्दगी मिल कि तेरे साथ ही चलना है हमें
पी के हर जाम तेरे साथ संभलना है हमें
***
बन के शमा शबेतारीक में जलती ही रहो
बन के परवाना तेरी आग में जलना है हमें
***
जागती आँखें जो थक जाएँ तो ये कह देना
चलो सो जाओ कि अब ख्वाबों में मिलना है हमें
***
चैन लेने नही देती है मिलन की वो हसीं याद
फिर से बाहों में तेरी चैन से सोना है हमें
***
चाहे जिस मोङ पे ले जाऐ कहानी अपनी
मेरा वादा है तेरे साथ ही जीना है हमें
***
अपनी तुगयानी पे इतरा ना ऐ बहते दरया
बनके तूफान तेरी आग़ोश में पलना है हमें
***
शबेतारीक(काली रात)-तुगयानी(तेज और ऊंची लहरें)-आगोश(बांह)
शबेतारीक(काली रात)-तुगयानी :(तेज़ ओर ऊँची लहरें )-आगोश(बांह)

Friday, 21 August 2009

मेरी रुसवाई तेरे काम आए

मेरी रुसवाई तेरे काम आए
ज़िन्दगी कुछ तो मेरे काम आए
कुछ दिनों से यही चाहत है
उसका पैगाम मेरे नाम आए
उसको मिलते रहे खुशियों के सुराग
हर सिसकता हुआ गम मेरे नाम आए
मुद्दतें बीत गयी बिछडे हुए
वस्ल की फिर कोई रात आए

Monday, 17 August 2009

आँचल से खेलती लडकियां

कितनी अजीब होती हैं ये लड़कियां ...कितना अच्छा लगता है उन्हें सपनों में जीना ...बचपन ही से किसी नामालूम और अनजान से चेहरे पर फ़िदा हो जाती हैं , सपनों में आने वाले घोङसवार को अपना शहजादा बना कर हर लम्हा हर पल उस के नाम की मालाएं जब्ती हैं ... उस के साथ जीने के ख्वाब बुनती हैं ...अपना घर और लान की खोब्सूरती को सोच कर खुश होती हैं ...उस अनजान शहजादे की बाहों और पनाहों का सहारा ढूंङती है, उन की चूडियाँ खनकती हैं उन्ही के लिए और जब पायल बजती है तो भी उसी की खातिर ...आती जाती सांसें उसी का नाम लेकर सफर तै करती हैं ... और जब वो किसी और के आँचल में आराम करने लगता है तो टूटे दिल के हर टुकड़े को पल्लू में समेटने की नाकाम कोशिश ज़िन्दगी भर करती रहती हैं ...ख़ुद किए गुनाहों की सज़ा भुगतती हैं ...शायद नादान होती हैं या कमअक्ल ये तो नही मालूम मगर हाँ ... छोटीउम्र से सपनों की दुनिया में खो जाना उन की फितरत में शामिल होता है ...साहिल के बहुत करीब बैठ कर बचपन ही से रेत के घरौंदे बनाने लगती हैं ...इतना भी ख्याल नही रखती हैं की कब कोई सरकश लहर आजाये भरोसा नही ... कब उन के अरमानों के इस शीश महल को अपने थपेडों से इस तरह झिंझोड़ दे कि उस कि बुनियादें तक हिल जाएँ ...मगर नहीं वो वही काम करती हैं और फिर तन्हाई का दर्द आंखों में लिए ज़िन्दगी भर किसी अनजान से शहजादे के साए से प्यार करने का जुर्म करने पर पछताती हैं ...साहिल पर लहरों से बेपरवाह होकर ख्वाबों का महल बनने कि खता पर अफसुर्दा होती हैं मगर उस तो वक्त तो उन का कुछ नही हो सकता सिवा इस के के कि वो समंदर के साहिल पर जाएँ और अपना आँचल अपनी उँगलियों में लपेटें और फ़िर खोल कर उन्हें उडाने की बेकार कोशिश करें ...

Saturday, 15 August 2009

तू क्यों इतनी देर से मुझसे मिला

ज़िन्दगी में दर्द बस मुझ से मिला
उसको खुशियाँ, हर सितम मुझसे मिला

पा लिया था वक्त ने इक रास्ता
जब क़दम थकने लगे तो हमसफ़र मुझसे मिला

इक हरफ भी याद न था प्यार का
वो भी ऐसे मोड़ पर मुझसे मिला

आँख के दरया का हर कतरा उछल कर
चश्म से छलका जब वो मुझसे मिला

न कोई शिकवा था न कोई गिला इस बात का
तू क्यों इतनी देर से मुझसे मिला

इक अजब सी सादगी हम में भी है
सब कुबूल नाम पर उसके जो मुझसे मिला