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Sunday 7 June 2009

तुम को इस से क्या?

मैं जलता रहूँ
मेरी दुनिया से खुशियाँ रूठ जाएं
मेरे अपने भी मुझे भूल जाएँ
मेरे अश्याने में हवा भी आने से इनकार कर दें
रौशनी मुझे रास न आए
दर्द का असर मेरे चेहरे पर उतर आए
मैं दरबदर मारा मारा फिरूं
ज़िन्दगी मुझे रास ना आए
मुझे हर रोज तुम्हारी बातें याद आयें
आंखों में आन्सो दें
और फिर
देर तक आँखों से बरसात होती रहे
पर
मैं कहाँ हूँ
कैसा हूँ
तुम को इस से क्या
तुम ने तो अपनी राहें बदल ली हैं
तुम अब बहुत दूर जा चुकी हो
शायद तुम्हें गुज़रे लम्हात भी याद ना हो
हो सकता है तुम्हें
बूढे बरगद के नीचे बैठ कर की गई
बातें , वादे , कसमें कुछ भी याद ना हो
क्या तुम्हें ये भी याद नहीं की आँखें नींद से कितनी जल्दी
बोझल हो जाती थीं
मगर अब मैं रात रात जागता रहूँ
मेरी आँखों से नीद रूठ जाए
मगर हाँ
तुम को इस से क्या ?
अब तो कोई और दुनिया तुम्हारे लिए बाहें फैलाये है
मेरा अतीत तो अब
तुम्हारी ज़िन्दगी से बहुत दूर हो चुका है

3 comments:

Unknown said...

bhai waah !
dhnya ho !

समयचक्र said...

रचना का अंदाज बड़ा अच्छा लगा. बधाई .

अनिल कान्त said...

kuchh dard aise hote hain jinka koi ilaaj nahi hota
bas zindgi bhhra sehna hi hota hai

behtreen rachna