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Thursday 29 April 2010

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इन दिनो कुछ अजीब आलम
प्यार की राह देखती हूं मैं

ज़िंदगी की तलाश में शब भर
चांद तारों से बातें करती हूं

प्यार, इक़रार और वफ़ा हमदम
सबके मानी तलाशती हूं मैं

ज़ेहन में उल्झनों का दफ़्तर है
रात आंखों में काटती हूं मैं

जिसको पाना था उसको पा तो गई
फिर भी तन्हाईयों में जीती हूं मैं

क्यों ये लगता है वह नहीं मेरा
सांस दर सांस जिस पे मरती हूं मैं

वह जो धड़कन में मेरी बसता है
शायद उसके लिए नहीं हूं मैं

8 comments:

रश्मि प्रभा... said...

ज़ेहन में उल्झनों का दफ़्तर है
रात आंखों में काटती हूं मैं
kya soch hai

kshama said...

क्यों ये लगता है वह नहीं मेरा
सांस दर सांस जिस पे मरती हूं मैं

वह जो धड़कन में मेरी बसता है
शायद उसके लिए नहीं हूं मैं
Bahut nazuk alfaaz!Komal bhavnayen!

Anonymous said...

"ज़ेहन में उल्झनों का दफ़्तर है"
मन की उलझनों को दर्शाते सुंदर शब्दोभाव

Vinay said...

very best hai jee!

अमृत कुमार तिवारी said...

सहाब मियां...किस लाइन के बारे में बोलूं...शब्द नहीं हैं कि बता सकूं..

Alpana Verma said...

ज़ेहन में उल्झनों का दफ़्तर है
रात आंखों में काटती हूं मैं

bahut khubsurat !

हरकीरत ' हीर' said...

जिसको पाना था उसको पा तो गई
फिर भी तन्हाईयों में जीती हूं मैं

क्यों ये लगता है वह नहीं मेरा
सांस दर सांस जिस पे मरती हूं मैं

वह जो धड़कन में मेरी बसता है
शायद उसके लिए नहीं हूं मैं

जिसे हम पा लेते हैं वहाँ प्यार नहीं होता और जहां प्यार होता है उसे पा नहीं सकते ......!!

आपने मन के भावों को बहुत सुंदर तरीके से पिरोया है ......

संजय भास्‍कर said...

ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है