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Wednesday, 11 November 2009

ख़ून में सने सपने

हर तरफ शोर मचा था, कहीं चीखें थीं तो कहीं रोना, एक आफत एक तूफान आ गया था ज़िन्दगी की गली में, तलवारें मियान से बाहर थीं, किरपान निकले थे, तिरशूल लहरा रहे थे, मंदिर की घंटियां, मस्जिद से उठने वाली सदाएं, गुरूदवारे की आवाज़ें सब तलवारों, किरपानों और तिर्शूलों के टकराने की संगीत में कहीं गुम हो गए थे, मुरदा लाशों पर ज़िन्दा लाशें दौड़ रही थीं, उड़ती धूल को लहू की बूंदों से शान्त किया जा रहा था, धरती पर पहला क़दम रखने वाले मुस्तकबिल की सांसें घुट रहीं थीं, उसे मां की छातियों से दूर फैंक दिया गया था, कोई उस मासूम को उठाने की कोशिश कर रहा था मगर पिंडलियों पर होने वाले वार ने उसे निढ़ाल कर दिया, नन्हा बच्चा तड़पता हुआ बेबस मां के पास गिरता है, उस का एक हाथ उसकी नंगी छातियों था मगर वह अपनी इज़्जत अपनी बाहों में छुपा रही थी, दूध की प्यास से सूखे होंटों पर लहू निचोड़ा जा रहा था और इंसानियत ख़ून के आंसू रो रही थी...

1 comments:

अमृत कुमार तिवारी said...

रजी भाई....ये फिरकापरस्तों को मेल कर दो...