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Sunday 8 November 2009

ख़्वाबों की शहज़ादी

ख़्वाब और जवानी एक दूसरे से जुडी हुई चीज़ें हैं। बच्पन में ख़ूबसूरत परियों की कहानियां सुन कर सोना जितना अच्छा लगता है जवानी में हसीनों की दास्तान उतना ही मज़ा देती है। एक उम्र के बाद सपनें देखना और उनकी ताबीरें सोचना दिमाग को बहुत पसंद आता है, खास कर नींद की आगोश में जाने से पहले किसी से मिलन की चाहत ज़ोर पकड़ लेती है और फिर चांद के साथ रतजगे का सिलसिला शुरू हो जाता है। लगन और चाहत कामयाब होती है फिर किसी ना किसी चांद का दीदार हो ही जाता है।
महबूब को चांद बतलाने की रस्म बहुत पुरानी है मगर जब भी ख़्वाबों में किसी हसीना से मुलाकात होती है तो लोग उसे चांद सा ही बतलाते हैं। इन दिनों किसी की दुआएं काम आ रहीं हैं या फिर बद्दुआवों का असर था जो हर रात नींद आने से पहले ही पलकों पर कोई अपने नरम हाथ रख कर बैठ जाता है, शायद किसी अपने की (बद) दुआ का असर था, मगर कुछ भी हो इन ख़्वाबों ने मुझे कुछ कहने पर मजबूर कर दिया था, मुझे ड़र तो लग रहा कि उसकी ताबीर कहीं ग़लत ना हो जाए इसलिए किसी से कहने से दिल डरता था मगर क्या करें कुछ लोगों से रिश्ता ही कुछ ऐसा होता है कि मजबूरन कहना पड़ जाता है। मैं ने भी वही किया और दिल पर जब्र करते हुऐ कह दिया, वह भी ऐसे निकले की हर बात पूछने लगे। वह दिखने में कैसी थी, उसकी आंखें कैसी थीं, उसकी ज़ुल्फों का क्या हाल था, उसके लब के जलवे भी बता दो, उसके जिस्म की तराश कैसी थी और कई तरह के सवालों की बौछार कर दी। महबूब की तारीफ करना किस को पसंद नहीं होता। मेरे लिए तो अभी ख़्वाबों में आने वाली शहज़ादी ही मेरी महबूबा थी, वह ख़्वाब ही थी पर मुझे उसकी बातें करते हुए अच्छा लग रहा था जैसे मैं उसे देख रहां हूं और खुद उसी से उसकी तारीफें कर रहा हूं मैं एक एक करके उसके बारे में बताने लगा। उसका दिलकश हुस्न मैं कभी नहीं भूल सकता। गुलाबी चेहरा इस तरह खिला हुआ था जैसे फूल की कली हो, मैं सपने में ही उससे ये पूछने पर मजबूर था कि क्या तुम कोई जादू हो, खुश्बू हो या फिर कोई अपसरा हो, आंखें तो ऐसी थीं जैसे मयकदा(शराबख़ना) हो, उन नज़रों पर नज़र पड़ते ही मदहोशी का आलम तारी हो गया था मगर ख़्वाबों में ही मैं उसकी आंखों की सारी शराब पी लेने की नाकाम कोशिश कर रहा था, उनके झुकने, उठने और झुककर उठने की हर अदा जानलेवा थी, उसके लबों की सुर्खी ऐसी थी जैसे गुलाब की पंखुड़ी हो, पूरा चेहरा किसी कंवल, या कली की तरह शादाब था या फिर महताब की तरह रौशन था। ज़ुल्फों ने तो जान ही ले ली थी, सियाह रात जैसी ज़ुल्फें कोई काली बला लग रहीं थीं, उनके बिखरने और सिमटने पर ही दुनिया के हालात बदल जाते थे, जिस्म तर्शा हुआ था, दिलकश इतना की ऐतबार ही नहीं हो रहा था, कभी उसके होने पर यकीन आजाता तो कभी एक गुमान होने का शुब्हा हो जाता, आंखें मल मल के देखता था ताकि ख़्वाब होने का गुमान ना रह जाए (ये सब सपने की हालत में था), कितना बताता, उस परी सूरत की दास्तान तो बहुत लंबी थी। तारीफें थी कि ख़त्म ही नहीं हो रही थीं किसी और पोस्ट में उस हसीना पर चर्चा ज़रूर करूंगा और उस वक्त उसकी मुकम्मल तसवीर खींचने की पूरी कोशिश होगी। अभी तो यही ख़्याल सता रहा है कि क्या ये सपना सच होगा या फिर ...

7 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

bahut khoobsurat khwaab...

M VERMA said...

क्या खूब लिखा है जैसे एहसास करीने से चहलकदमी कर रहे हो.
हाँ ये सपना सच होगा

Anonymous said...

खूबसूरत है रज़ी भाई।

Sonalika said...

bhut khoobsurat, tumhari shajadi nahi, uske bare me to tumhi jano, mai to shailly ki baat ker rahi thi

शबनम खान said...

razi ji....khwabo lafzo ki khubsurat shakal di ha apne..........

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

हमारी तो यही दुआ है कि ये सपना सच हो जाए।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

निर्मला कपिला said...

बहुत खूब सूरत सपना है पूरा क्यों नहीं होगा? जरूर होगा बधाई और आशीर्वाद मगर जब पूरा हो जाये हमे जरूर बतायें मुँः मीठा तो करेंगे ही