
भारत में महान हस्तियों की पूजा और उनकी महानता के गुणगान करने का रिवाज बहुत पहले से चला आ रहा है और इस में किसी तरह की कोई कमी नहीं छोड़ी जाती है शायद इसी वजह से किसी ने हिंदुस्तान को मुर्दा परस्तों का देश भी कहा था क्योंकि ये यहां किसी भी बड़ी हस्ती के मरने के बाद उसकी कदर में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी जाती है। उसके जीते जी चाहे उसके सर पर कोई साईबान ना रहा हो मगर मरने के बाद समाधी के रूप में उसे एक बहुत बड़ा घर दिया जाता। आप को ग़ालिब याद होंगे जिन्होंने उर्दू शायरी को एक नया अंदाज़ दिया था, ज़िन्दगी में इस महान आदमी के पास किराए का तंग सा मकान था और वह ये कहता फिरता था कि हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे मगर उसकी मौत के बाद इतना बड़ा हिस्सा उसके नाम कर दिया गया जिसका सपना भी उन्होंने नहीं देखा होगा।
लेकिन शायद ये रस्म धीरे धीरे अपने अंजाम को पहुंच रही है और अब किसी के पास इनकी चीज़ों पर तवज्जुह देने की ज़रूरत नहीं महसूस हो रही है। शायद इसी वजह से तो आज फ़िराक़ गोरोखपुरी के घर का ये हाल हो रहा है। बनवारपूर गाँव मे28 अगस्त सन 1896 को जन्म लेने वाले रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपने क़लम से भारत की आज़ादी के लिए जो कोशिशें कीं उससे कोई भी शख़्स ने इन्कार नहीं कर सकता है और शायद उनके इसी यौगदान के लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुस्कार से सम्मानित किया गया था। मगर शायद अब इस यौगदान के धुंधले नक्श भी लोगों के ज़ेहन पर बाक़ी नहीं हैं।
ख़बर तो ये है कि फ़िराक़ ने जिस शहर का नाम रौशन किया आज वही शहर उन्हें भुला बैठा है और वह घर जहां से शायरी का ये सफर शुरू आज वह दूसरे के कब्ज़े में जाकर अपना वजूद खो रहा है। रिपोर्ट के अनुसार फिराक गोरखपुरी का लक्ष्मीनिवास को पुर्वांचल का आनंद निवास कहा जाता था मगर आज इस इतिसातिक निवास पर अबैध कब्जा है।
ये देखने की बात है कि जहां देश पर जान देने वालों को इंण्डिया गेट पर हमेशा ज़िन्दा रखने की कोशिश की जाती है वहीं अपने क़लम की लहू के हर बूंद को निचोड़ कर आज़ादी की सुबह लाने के लिए कोशिश करने वालों का ये हशर हो रहा है।
मगर शायद अब दुनिया के अंदाज़ बदल चुके हैं तो लोगों को याद करने का भी नया तरीक़ा ईजाद किया जाना ज़रूरी था। हां इसीलिए तो उनके घर की जहां एक विरासत के तौर पर हिफ़ाज़त करनी चाहिए वहीं आज उसे हडपने के लिए सभी मुंह फैलाए हुए हैं।
मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई ना हमें
और हम भूल गऐ हों तुझे ऐसा भी नहीं
कभी फिराक ने इन्हीं शब्दों से अपने महबूब से कलाम किया था और आज उनको लोग यही कहकर पुकार रहे हैं कि ऐ फ़िराक़ हमने तुम्हें बहुत दिनों से याद नहीं किया है मगर हम तुम्हें भूले नहीं हैं, हमें तुम्हारी शायरी तो याद नहीं मगर तुम्हारा घर हमें तुम्हारी याद दिलाता रहता है।
यहां सवाल ये उठता है कि क्या ऐसी महान हस्तियों कि वरासत के साथ ऐसा होना चाहिए। शायद नहीं। मगर ऐसा हो रहा है और इसका तमाशा सभी देख रहे हैं। ये देखते हुए ये कहना ज़्यादा मुश्किल नहीं है कि भारत दूसरी चीज़ों की तरह से अपनी ये पहचान भी खोता जा रहा है। सरकार के लिए इस बात पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है कि इन हस्तियों के वरासत का बुरा हाल ना किया जाए वरना एक दिन ऐसा आएगा जब यहां की संस्कृति खुद से शर्म करेगी और ये कहती फिरेगी कि मैं तो ऐसी ना थी, मुझे ये पहचान क्यों दे दी गई?