6 दिसम्बर 1992 को जो घटना बाबरी मस्जिद की शहादत के रूप में हुई उसने ना सिर्फ हिंदुस्तानी तहज़ीब का ख़ून किया बल्कि भारतीय संमिधान का भी जनाज़ा निकाल दिया था। इस घटना ने जहां हर दिल को रोने पर मजबूर कर दिया था वहीं यह भी सोचने पर मजबूर कर दिया था कि आख़िर क्या अब यहां जम्हूरियत का कोई मुहाफिज़ नहीं है या फिर क्या अब हिंदुस्तानी लोग सेकियुलरिज़म से उकता चुके हैं?
आज उसकी 17वीं बरसी पर मैं अपने गमों का इजहार करता हूं साथ ही मैं आप की ख़िदमत में मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की मशहूर नज़म दूसरा बनवास पेश कर रहा हूं
छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे…
राम बनवास से जब लौट के घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक्से दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसंबर को श्री राम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आये?
जगमगाते थे जहां राम के क़दमों के निशां
प्यार की कहकशां लेती थी अंगड़ाई जहां
मोड़ नफरत के उसी राहगुज़र में आये
धरम क्या उनका है, क्या जात है, यह जानता कौन?
घर न जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा, लोग जो घर में आये
शाकाहारी है मेरे दोस्त, तुम्हारा खंजर
तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की खता ज़ख्म जो सर में आये
पांव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
के नज़र आये वहां खून के गहरे धब्बे
पांव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम यह कहते हुए अपने द्वारे से उठे
राजधानी की फ़िज़ा आयी नहीं रास मुझे
छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे।
10 comments:
कैफी मिलते तो मैं कहता,"दद्दू, तुम बस नज़्म अच्छी लिखना जानते हो, चाहते हो और लिखते हो। इस बार भी लिख दिए। थोड़ा बताओ कब कब चुप्प रह गए? सुभानअल्ला।.."
तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की खता ज़ख्म जो सर में आये .nice
इक़बाल ने कहा था ...
इस दौर की ज़ुल्मत में , हर क़ल्ब-इ-परेशां को
वह दाग़-इ-मोहब्बत दे जो चाँद को शर्मा दे
Qaifee Azami mere pasnadeeda shayar rahe...uprokt rachna aur aapke bhaav donoko naman hai!
अछ्छी कविता....आपको बधाई...और कैफी साहब को सलाम...साम्प्रदायिता से देश का कुछ भला न होगा...
ऊपर के कमेंट में अच्छी कविता पढ़ें
बहुत अच्छे..
तारीफे काबिल.....
बहुत बढ़िया....लेकिन जम्हूरियत की भाषा हिंदूस्तानी नहीं जानते। इसने अपने राजाओं से नवाबों से लड़ना नहीं सिखा। मजहब राजनीति का कब मामुली सा प्यादा बन जाए कुछ नहीं कहा जा सकता। हिंदुस्तानियों को पहले गुलामियत के जीन से आजाद कराओं...कोई इन्हें बताए असल डिमॉकरेसी का एहसास क्या होता है। सहाब साहब..आज लोग मजहब के लिए...डेरों के लिए...बाबाओं के लिए तलवारें और बंदूक निकाल कर जान देने और लेने को तैयार हैं। लेकिन ये लोग देश के लिए अपने समाज की भलाई के लिए कोई एक विद्रोह का स्वर भी नहीं उठाते। गुलामी मानसिकता। आज हिंदुस्तानियों को धर्म की गुलामी से पार पाना होगा। आइकॉनिक इमेज से आजादी पानी होगी।
बाकी हरिवंश राय बच्चन जी की कविता ही हमें तो भली लगती है।
मुसल्मान और हिन्दू हैं दो, एक, मगर, उनका प्याला
एक, मगर, उनका मदिरालय एक, मगर, उनकी हाला
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद - मंदिर में जाते;
बैर बढाते मस्जिद - मंदिर मेल कराती मधुशाला।
जय हिंद-----
6 disamber ko mila dusra banwas mujhhe sunder abhibyakti hai.
Badhai.
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