कितनी गमगीन रात थी वो भी…दोस्तों के हमराह हम भी मयखाने चल पड़े...मुझे पता था कि तुझे शराब नही पसंद है इसी वजह से मैं जाने से कतरा रहा था...मगर क्या करता उन्हों ने कागज़ की कश्ती और बारिश के पानी का वास्ता दे दिया...जाना तो पड़ ही गया...हाँ मैं ने शर्त लगा दी थी मैं पियूं गा नही...दोस्तों की हामी के बाद उस दुनिया को चल पड़े जहां पर हर कोई अपना ग़म गलत करने पहुंते हैं...पहली बार नाईट क्लब का माहौल देखा था...सुना तो बहुत कुछ था मगर आज जब अपनी आंखों से देखा तो अंदाजा हुआ कि आखिर लोग यहां क्यों आते हैं...यहां तो दुनिया ही अलग होती है...हाँ नफरत और वहशत भरी दुनिया से बिलकुल अलग...हर कोइ दिल खोल कर हर किसी का साथ इस तरह देता है मानो बरसों से एक ही थाली में खाते चले आए हों...कदम जमीन पर टिकने के लिए राज़ी नही होते हैं फिर भी दो पैग लगाना कुबूल होता है...हाँ पीने वालों का मकसद भी अलग अलग होता है...कोइ तो अपनी हसीन महबूबा की जुदाई का वास्ता देकर पीता है तो कोइ किसी दिलफरेब हसीना की बेवफाइ से घायल हो कर पीता है...कोई किसी के मधभरे होंटों के तसव्वुर में पीता है तो कोइ उसे भूल जाने के लिए पीता है...कोइ होश में नही था कोइ किसी के नाम पर पिला रहा था तो कोइ किसी की ख़ातिर पी रहा था कोइ अपने दोस्त और कोइ अपने महबूब के हमराह बेखुदी के चंद लमहात बटोरने चला आया था...मयनोशी का दौर पूरे शबाब पर था,नाइट कलब खचाखच भरा हुआ था…हाँ दोस्तों ने भी अपनी पसंद ऑर्डर कर दी थी...मैं ने एक खाली कुर्सी देखी और बैठ गया...क्योंकि मुझे पीना तो था नही...मैं तो बस उनका दिल रखने के लिए चला आया था...
कहते है पहली बार जो चीज़ मिलती है वो बहुत दिलचस्प लगती है...दूसरे हादसों की तरह ये हादसा भी मेरी जिंदगी में पहली बार हुआ था...पहली बार क्लब में आकर मैं यहां की हर चीज को अपनी यादों की ड़ायरी में कैद कर लेना चाहता था...मैं वहां की हर चीज़ को बहुत गौर से देख रहा था...म्युज़िक की धीमी धीमी तरंग माहौल को खुशनुमां बना रही थी...मै उस वक्त उन ख़्यालों की दुनिया से बाहर आया जब किसी अंजाने गर्म हाथों का लम्स मेरे ठंडे बदन को छू रहा था...शराब के नशे मे मदहोश हसीना कह रही थी ...क्या आप ने उन्हें देखा है...वो मुझे यही लाया करते थे...हाँ उन्हें आदत थी पीने की...जब से मैं उनकी जिंदगी में आई थी उन्हों ने पीना छोड़ दिया था...वो बेसुध होकर बोलो जा रही थी और मैं उसके चेहरे के उतार चढाव देख रहा था ... वो कह रही थी मैं और वो एक साथ यहां आते थे ... वो कुर्सी देख रहे हो ...उस ने इशारे से कोने में पड़ी दो कुर्सियां दिखाइ थी...वो घंटों मेरे चेहरे पर निगाहें जमाए इस शोर-व-गुल से दूर मुझ में समाने की कोशिश करते थे... मैं ने जब से उसे देखा था मेरी निगाहें उस की झील सी आंखों से हटने का नाम नहीं ले रही थीं...इसी लिए मैं सुनना नही चाहता था ..कहीं मेरे बीते पल फिर मुझे सताने न लगें मगर मैं मजबूर था ...यहां तो कोइ भी किसी को भी अपना दर्द सुना सकता था ...मैं ने भी सुनना जारी रखा कुछ तो उस दुस्तूर का लिहाज़ रखते हुए तो कुछ उस टूटे हुए दिल को ख़्याल रखते हुए...मैं उस से कैसे कहता कि
ना छेड़ ऐ हमनशीं कैफियते सहबा के अफसाने
मुझे वो दश्ते खुदफरामोशी के चक्कर याद आते हैं
...अब वो क्या बोल रही थी मुझे कुछ समझ नही आ रहा था...हां उस की हर बात मुझे अपने बीते पलों में ढ़केल रही थी...मैं ने जब से उसे देखा था मेरी निगाहें उस की झील सी आंखों से हटने का नाम नहीं ले रही थीं...मै बार बार उन्हें देख कर अपनी दोस्त को याद कर रहा था...उस के आंखों में जो आंसुओं के मोती झलक रहे थे उसी तरह उस की आंखों में भी होते थे ... हाँ ये लाल ड़ोरे जो इस की दर्द भरी आंखों में अंगडाई ले रहे है उस की आंखों में भी मचलते थे...यही गहराई थी जिस में मैं कई बार ड़ूबा था......आज बहुत दिनों बाद उस का ख्याल आया था दिमाग़ में...वह जाते जाते मुझ से कह गई थी कि मैं उसे याद नहीं करूंगा...लेकिन आज बरसों से निभाया जा रहा वादा टूट चुका था...मैं ने बहुत कोसा था दिल को कि जिसे मैं ने चाहा था मैं उसी के एक वादे की हिफाज़त ना कर सका...शायद इसी वजह से सालों से बनावटी हंसी की आदी आंखे दिल खोल कर रोई थीं...उन आंखों ने फिर मुझे पिला दिया था... और मेरे कदम लडखडा रहे थे...होश बाकी ना था ....और...नाईट क्लब बंद होने के साथ दोस्तो के कंधों का सहारा लेकर रात की सियाही में तन्हा सडक को रौंद रहे थे....
Wednesday, 29 July 2009
Tuesday, 28 July 2009
मैं तुझ में समा जाऊँ तू मुझ में पिघल जाए
मैं तुझको आज़माऊँ तू मुझको आज़माए
ऐसा न हो ऐसे ही युँ उम्र गुज़र जाए
हर शब है अकेली हर शाम बहुत बोझल
तू आ कि ज़रा शाम की तन्हाई संवर जाए
आ मिल कि ज़रा देर को बातें तो करें हम
शायद कि रूके वक्त और चांद ठहर जाए
कब से हूँ तेरी राह में पलकें बिछाए
तू अपना गर समझे तो रूके वरना गुज़र जाए
ऐ काश कि हो जाए कभी अपना मिलन ऐसे
मैं तुझ में समा जाऊँ तू मुझ में पिघल जाए
अब हौसला भी झटकने लगा है ज़ब्त से हाथ
सैलाब न आ जाए कहीं आंख बरस जाए
Sunday, 26 July 2009
मेरा उस से रिश्ता क्या है?
मैं नही जानता कि मेरा उस से रिश्ता क्या है
मैं तो बस इतना जानता हूँ
मेरी ज़िन्दगी का हर दर्द उसी से मंसूब है
मेरी रूह की हर खुशी उसी की देन है
मेरी पलकों का हर आंसू उसी का दिया हुआ है
मेरे चेहरे की हर मुस्कराहट उसी का तोहफा है
मेरे पांव का हर छाला उस की यादों से वाबस्ता है
मेरे बदन की हर खुशबु उस के हमराह बीते पलों की निशानी है
मेरी आंखों के सारे रतजगे उस की जुदाई के हैं
मेरे चेहरे की ताजगी उस से मिलन की गवाह है
मुझे मिलने वाला सारा प्यार उसी का दिया हुआ है
मेरे अपने प्यार पर भी सिर्फ़ उसी का हक है
मेरे दिल की हर धड़कन उसी के नाम की है
आती जाती साँसे भी उसी पर कुर्बान हैं
उस को पहुँचने वाली तकलीफ दिल को लगती है
दर्द में डूबी उस की आँखें रुला देती हैं
सोती आँखें उस का खवाब सजोती है
जगती आँखें उसकी राहों से कांटे चुनती हैं
शाम का सूरज उस की यादों के हमराह गुरूब होता है
सुबह का आफताब उस के हसीं तसव्वुर के साथ तुलू होता है
हाँ लोगे पूछते हैं मेरा उस से क्या रिश्ता है
मैं नही जानता
हाँ बस
मैं उस के बगैर अधूरा हूँ
उस के बगैर मेरी ज़िन्दगी का कोई माना नही
Saturday, 25 July 2009
...अछ्छी नही लगती
जो दिलों को तोड़ दे वो अफसुरदगी,अछ्छी नही लगती
ला के ऐसे मोड़ पर यों बेरूखी,अछ्छी नही लगती
अब तो बस दुनिया का ये है फलसफा
मुफ्लिसों के घर में हो रौशनी,अछ्छी नही लगती
मुद्दतों से कैद हूँ दुनिया के इस जंजाल में
प्यार है क्या चीज़ और दीवानगी, अछ्छी नही लगती
तुम हमें जब से मिले सारा जहां अपना हुआ
मुझ को अब तेरे सिवा की दोस्ती, अछ्छी नही लगती
अब हमेशा आंख मे आंसू लिए फिरता हूँ मैं
मेरे चेहरे पर उसे कोई हंसी, अछ्छी नही लगती
तेरा चेहरा भी गुलाबों की तरह खिलता रहे
आंख में तेरे हमें कोई नमी, अछ्छी नही लगती
प्यार ही जब रूठ कर हो जाए इस दिल से जुदा
घर में हो कोई खुशी, अछ्छी नही लगती
Thursday, 23 July 2009
कोई तो हो जो इनके उजड़ने का ग़म करे
बदन झुलसाती गर्मी ने जब पसीने से पूरा जिस्म भिगो दिया तो ख़्याल आया चलो जंगल की सैर कर आते हैं कुछ ठंडी हवा लेते हैं ... क़दम ख़ुद बखु़द जंगल की तरफ उठते चले जा रहे थे ... रास्ते भर गर्मी अपना काम करती रही ... पसीना माथे से होकर गले और फिर पूरे बदन पर फैलता जा रहा था ... जंगल पहुंचने की ललक और बढ़ती चली जा रही थी ... बस थोडी़ दूरी मेरे और जंगल के बीच बाकी थी... एक लम्बे वक्त के बाद जंगल में आया था, मैं ... विलायत से लौटने के बाद पहली बार मैं आया था जंगल... हाँ अब बहुत बदला-बदला सा लग रहा था ... बार-बार मेरी नज़र उस जगह जा रही थी जहां वो बूढा बरगद का पेड़ था ... हाँ वहीं जिस के नीचे गांव के बुजुर्ग लोग बैठ कर गांव, शहर और दुनिया के सुलगते मसलों पर घंटों चर्चाएं किया करते थे, वो अमलतास का पेड़ भी नजर नहीं आ रहा था जिस के नीचे कोई ना कोई प्रेमी जोडा़ प्यार के गीत गुनगुनाता मिल जाता...पर अब जंगल बहुत सूना-सूना लग रहा था...मेरा दिमाग इस बात के लिए मुझे कचोके लगाने लगा कि मैं इस प्यारे से जंगल का हाल ऐसा कैसे हुआ, ये जानू.. बदन अब सूख चुका था ... ठंडी हवा ने पसीने का नामो निशान तक मिटा दिया था... अब मैं लौटने के बारे में सोच रहा था ...शाम होने को थी ...घर पर मां अकेली थी ...जल्दी-जल्दी कदम बढा़ते हुए मैं घर पहुंचा ... मां खाने पर मेरा इंतज़ार कर रही थी ... खाने के बाद देर तक मां से बातचीत होती रही...बार-बार जंगल का ज़िक्र करने पर मां बोल पड़ी ... अरे बेटा ये तो कई सालों से हो रहा है...नींद आखों की पलकों पर कब्ज़ा करने के लिए बेताब थी...बहुत दिनो बाद मां की गोद मिली थी...मां की उंगलियां मेरे नर्म बालों में नाच रही थी और नींद का ज़हर मेरी आंखों के रस्ते पूरे बदन में सरायत करती जा रही थी...कब सुबह हुई ये मां की आवाज़ सुनने के बाद पता चला...जंगल की इस हालत के बारे में जानने के लिए मन मचल उठा ..कपड़े पहने और चल पड़ा वन विभाग.... रहना उसी गांव में है तो गांव वालों से दुश्मनी मोल लेने से क्या फायदा...कुछ पेड़ काट ही लेते हैं तो क्या दिक्कत है, जब सरकार इन जंगलों के प्रति इतनी बेपरवाह रहती है तो हम क्या कर सकते हैं –मेरे सवाल पर प्रेमपाल नामी वनपाल ने अपने विचार मुझे सुना दिए...वन विभाग में कई बार आना जाना हुआ था इस लिए कई लोग मुझे पहचानने लगे थे, दूर से आते हुए वनपाल कारु जी को मैं ने नमस्कार किया था, बहुत ख़ुश हुए थे,नमस्कार कहते हुए उन्होंने पूछा और बेटा कैसे हो...ठीक हूँ कह कर मैं ने फिर जंगल की हालत के बारे में बात छेड़ दी...इक आह भरने के बाद उन्होंने कहा क्या बताएं बेटा ... सरकार समय पर पैसा नहीं देती, इसलिए लकड़ियां बेच कर हम अपना पारिश्रमिक निकाल लेते हैं...हजारीबाग के वनपाल की यह बातें मेरे कान के पर्दों से बार-बार टकरा रही थीं... सरकार समय पर पैसा नहीं देती, इसलिए लकड़ियां बेच कर हम अपना पारिश्रमिक निकाल लेते हैं...मैं सोच रहा था शायद जंगल की इस हालत के लिए पूरी सरकार जिम्मेदार है...पर मैं तो व़र्षों बाद विलायत से लौटा था...हालात ने कौन सी करवट ली थी मुझे इस का पता नहीं था ... कुछ लम्हा वनपालों के साथ और बिताया और फिर भारी सर लिए घर की तरफ लौट पड़ा ...गांव कुछ दूर रह गया था ...मैं बोझल कदमों के साथ चला जा रहा था...वैसे मैं किसी की बातें सुनने का शौक़ीन नही था ... मगर दिल कह रहा था ... मजबूर कर रहा था कि रूकूं ... सूनूं ... मैं ने सोचा शायद मेरे कानों को धोका हो रहा है...मगर नहीं ये धोका नही था मैं ने अपने कान खुजला कर दुबारा सुना था...‘खिचड़ी के लिए रोज स्कूल जाती हूं...टिफीन के बाद अगर मन नहीं लगता तो स्कूल से भाग आती हूं... और मां के कामों में हाथ बटांती हूं,... जंगल से लकड़िया लाती हूं’ ये कह रही थी झारखंड की रहने वाली 12 साल की कमला... पहचान में नहीं आ रही थी कुछ ही सालों में कितनी बड़ी लगने लगी थी...मैं अचंभे में नही था क्योंकि सुना था लड़कियां जल्दी बड़ी हो जाती हैं...वह रोज स्कूल जाती है 5वीं में पढ़ती है पर 5 का पहाडा और ककहरा नहीं जानती...उस की ये हालत देख कर मैं जंगल की हालत कुछ हद तक भूल चुका था...ये पूछने पर की शिक्षक दूसरे दिन डांटते नहीं...कहती है, सरकारी स्कूल है इतने बच्चों की भीड़ है कि अगर 4-6 बच्चे गायब भी हो जाएं तो शिक्षकों को पता नहीं चलता और शिक्षकों को रजिस्टर भरने से इतनी फुर्सत ही नहीं मिलती की वे दोबारा हाजिरी ले सकें। कमला कहती है जिस दिन डिप्टी साहब लें स्कूल जाती है 5 क्या बताऐ के आने की खबर मिलती है उस दिन शिक्षक पढाई पर जरूर ध्यान देते हैं हाजिरी भी दो-दो बार ली जाती है। लेकिन ये सब ताम झाम बस उसी दिन के लिए होता है। मैं ये सब सुन कर मैं सोच में ड़ूबा घर लौट आया ... देखते ही मां ने कहा बेटा हाथ मुंह धुल लो मैं तुझे कुछ खाने को देती हूँ ... अंदर से कटोरे में कुछ लेकर आ रही थी मां...जब से मैं आया था रोज़ मां नई-नई चीजें मेरी पसंद की मुझे खिला रही थी...आज गाजर का हलवा था...बहुत पसंद था मुझे...खा कर मैं ने मां से कहा मां रास्ते में कमला मिली थी...सयानी हो गई है...मगर मां वो अपने स्कूल का जो हाल बता रही थी वो तो बहुत दुखद है...हां बेटा...यहां तो अंधेर नगरी चौपट राजा है...सब दुखद ही है...थोड़ा खामोश रहने के बाद मां कमला के बारे में बताने लगी...कमला अपनी मां के कामों में भी खूब हाथ बटाती है...हाँ, इसी बहाने मजे भी कर लेती है, जंगल में कमला की सहेलियां भी अपने मां के साथ मौजूद होती है...कमला को इन जंगलों में डर भी नहीं लगता...मां कह रही थी पहले कमला की मां इधर आने से मना करती थी...कहती थी भेड़िया लकडबग्घा रहता है पकड़ लेगा पर अब अकेले भी आने से नहीं रोकती...जब कमला की बात करते करते मां ने जंगल की बात की तो मेरा दिमाग फिर जंगल के बारे में सोचने लगा...थोड़ी देर बाद उठा और घर से निकल पड़ा...कमला के घर पहुंचा... उस की मां ने खटिया गिरा कर बैठने के लिए कहा...कुछ देर हाल-चाल के बाद मैं फिर जंगल का जिक्र छेड़ बैठा...कमला की मां कह रही थी पहले जंगल घने थे जानवर रहते थे पर अब जंगल धीरे-धीरे कम हो रहा है, इसलिए जानवर भी कम होते जा रहे हैं...एक सवाल का जवाब देते हुए कमला की मां ने कहा, रोज झाड़ियां काटते हैं जब कभी मौका मिलता है पेड़ भी मिलकर काट के आपस में बांट लेते है...
मैं झारखंड की ऐसी बुरी हालत सुन कर दंग रह गया...जंगलों के पेड़ों के साथ साथ जानवरों का भी सफाया हो रहा है...कोई देखने पूछने वाला नहीं, सरकार बेसुध है। मैं मन ही मन सोच रहा था...फॉरेस्ट ऑफीसर के नीचे काम करने वाले अधिकारियों में एक वनपाल भी होता है, जिसपर एक गांव के कई क्षेत्रों के जंगलों की देखभाल की जिम्मेदारी होती है। इन पदों पर 1980 से पहले बहाल हुए कर्मचारी ही काम कर रहे हैं क्योंकि इसके बाद इस पद के लिए बहाली ही नहीं हुई है। खयालों में चतरा के प्रेमलाल आ गए वो भी एक वनपाल हैं जो इस समय बोकारो के एक गांव में कार्यरत हैं उन्हें एक गांव में मौजूद कई जंगलों की देखभाल करनी पड़ती है मैं गया था वहां भी...पूछने पर की क्या एक साथ कई जंगलो की देखभाल कर लेते हैं कहते रहे थे, पास-पास रहने पर तो कोई दिक्कत नहीं थी पर 10–15 किमी दूर स्थित जंगलों की देखभाल कर पाना मुश्किल है। नए पौधे लगाए जाने के बारे में पूछने पर प्रेमलाल कहते रहे थे पौधे तो तैयार हैं पर, पर्याप्त वर्षा नहीं होने और पानी की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण इन्हें लगाया नहीं जा रहा है। जंगल की इस हालत के बारे में जब गांववालों से बात की तो पता चला कि कई वनपाल तो खुद ही पेड़ काट कर बेच देते हैं और जब ज्यादा पेड़ कट जाते हैं तो गर्मी के दिनों में खुद ही जंगलों में आग लगा कर ये ज्यादा पेड़ों की कटाई को छुपाने की कोशिश करते हैं। पुलिस वाले भी पूछताछ में कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते क्योंकि उन्हें भी खिला पिला दिया जाता है, पेड़ों की कलमी भी ये वनपाल इसी बहाने बेच देते हैं, मैं सोच रहा था जंगलों के ताल्लुक इस ढुलमुल रवय्या का असर वनों के साथ-साथ वन्य प्राणियों पर भी पड़ रहा है, कई वन्य जीव अब लुप्त हो चुके हैं क्योंकि इनके शिकार और तस्करी का भी दौर शरू हो चुका है इस से इंकार नहीं किया जा सकता...सरकार भी इस मसले पर आंख मूंदे बैठी है...किसी की किसी के प्रति कोई भी जवाबदेही नहीं है...
मैं झारखंड की ऐसी बुरी हालत सुन कर दंग रह गया...जंगलों के पेड़ों के साथ साथ जानवरों का भी सफाया हो रहा है...कोई देखने पूछने वाला नहीं, सरकार बेसुध है। मैं मन ही मन सोच रहा था...फॉरेस्ट ऑफीसर के नीचे काम करने वाले अधिकारियों में एक वनपाल भी होता है, जिसपर एक गांव के कई क्षेत्रों के जंगलों की देखभाल की जिम्मेदारी होती है। इन पदों पर 1980 से पहले बहाल हुए कर्मचारी ही काम कर रहे हैं क्योंकि इसके बाद इस पद के लिए बहाली ही नहीं हुई है। खयालों में चतरा के प्रेमलाल आ गए वो भी एक वनपाल हैं जो इस समय बोकारो के एक गांव में कार्यरत हैं उन्हें एक गांव में मौजूद कई जंगलों की देखभाल करनी पड़ती है मैं गया था वहां भी...पूछने पर की क्या एक साथ कई जंगलो की देखभाल कर लेते हैं कहते रहे थे, पास-पास रहने पर तो कोई दिक्कत नहीं थी पर 10–15 किमी दूर स्थित जंगलों की देखभाल कर पाना मुश्किल है। नए पौधे लगाए जाने के बारे में पूछने पर प्रेमलाल कहते रहे थे पौधे तो तैयार हैं पर, पर्याप्त वर्षा नहीं होने और पानी की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण इन्हें लगाया नहीं जा रहा है। जंगल की इस हालत के बारे में जब गांववालों से बात की तो पता चला कि कई वनपाल तो खुद ही पेड़ काट कर बेच देते हैं और जब ज्यादा पेड़ कट जाते हैं तो गर्मी के दिनों में खुद ही जंगलों में आग लगा कर ये ज्यादा पेड़ों की कटाई को छुपाने की कोशिश करते हैं। पुलिस वाले भी पूछताछ में कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते क्योंकि उन्हें भी खिला पिला दिया जाता है, पेड़ों की कलमी भी ये वनपाल इसी बहाने बेच देते हैं, मैं सोच रहा था जंगलों के ताल्लुक इस ढुलमुल रवय्या का असर वनों के साथ-साथ वन्य प्राणियों पर भी पड़ रहा है, कई वन्य जीव अब लुप्त हो चुके हैं क्योंकि इनके शिकार और तस्करी का भी दौर शरू हो चुका है इस से इंकार नहीं किया जा सकता...सरकार भी इस मसले पर आंख मूंदे बैठी है...किसी की किसी के प्रति कोई भी जवाबदेही नहीं है...
Wednesday, 22 July 2009
कितना अच्छा लगता है
अब हर रात निकलने वाला चाँद
मुझे दिखाता है इक अकस
नीद से बोझल पलकोँ के साथ
जब मैँ चाँद की तरफ देखता हूँ
इक अनजाने चेहरे का अकस
उभर कर आता है मेरे सामने
दिमाग पर जोर देता हूँ
कौन है?
किस का अक्स है ?
मुझे ही क्यों नजर आता है
अकेली रात में
जब नीद आँखों के परदे से
दूर बहुत दूर चली जाए
कितना अच्छा लगता है
तारों के भीड़ में तनहा
चमकते चाँद देखते रहना
क्यों
शायद इस वजह से कि
उस में नजर आने वाला अक्स
आँखों के रासते दिल तक
पहुँच चुका है
हर घडी
हर लम्हा
हर पल
वो साया बन कर मेरे
साथ रहता है
हाँ शायद इसी लिऐ
जब नीद आँखों के परदे से
दूर बहुत दूर चली जाए
सारी दुनिया नीद की आगोश
में पनाह ले ले
कितना अच्छा लगता है
तारों के भीड़ में तनहा
चमकते चाँद देखते रहना ।
मुझे दिखाता है इक अकस
नीद से बोझल पलकोँ के साथ
जब मैँ चाँद की तरफ देखता हूँ
इक अनजाने चेहरे का अकस
उभर कर आता है मेरे सामने
दिमाग पर जोर देता हूँ
कौन है?
किस का अक्स है ?
मुझे ही क्यों नजर आता है
अकेली रात में
जब नीद आँखों के परदे से
दूर बहुत दूर चली जाए
कितना अच्छा लगता है
तारों के भीड़ में तनहा
चमकते चाँद देखते रहना
क्यों
शायद इस वजह से कि
उस में नजर आने वाला अक्स
आँखों के रासते दिल तक
पहुँच चुका है
हर घडी
हर लम्हा
हर पल
वो साया बन कर मेरे
साथ रहता है
हाँ शायद इसी लिऐ
जब नीद आँखों के परदे से
दूर बहुत दूर चली जाए
सारी दुनिया नीद की आगोश
में पनाह ले ले
कितना अच्छा लगता है
तारों के भीड़ में तनहा
चमकते चाँद देखते रहना ।
Tuesday, 21 July 2009
वो ना आया ...
कल जब शाम रात के लुबादे में छुपने को बेकरार थी , सलेटी मायल सुर्ख आसमान के किनारे बहुत नीचे ढलान पर लुढ़कता आफताब बुझते दिए की तरह ज़ोर लगा कर रौशन होने की कोशिश कर रहा था , आसमान पर सियाही अपना पैर पसार रही थी ...निगाह बार बार उन पक्दंदिओं की तरफ़ उठती चली जा रही थी जहाँ से होकर गुज़रा था ... बरसात आने वाली थी , काले बादलों ने पूरा आसमान धक् लिया था ...वो कह कर गया था तुम्हारे लिए इक तुहफा लेकर आ रहा हूँ ...हाँ सिर्फ़ तुम्हारे लिए ... तुम यही रुकना ...मैं बस गया और आया ...दूर जाते हुए उस ने कहा था ...रुकना ..न ..न यहीं पर ,साथ में नहाये गे ...रुकना ...न ...न... देर तक ये आवाज़ शाम के सन्नाटों को चीरती रही थी ... बारिश हुई ...अकेले भीगा ...वो आया नही ... कई बरस गुज़र गए ... ऐसे मंज़र तो बहुत आए पर ...हर बार निगाहें दूर तक जाने वाले के लौटने को देखती रही मगर कोई फायदा न हुआ आज शाम भी उसी इंतज़ार में कट गई ..वो ना आया ...
Sunday, 19 July 2009
मैं नही मानता ...
सब कहते हैं मुहब्बत बहुत अच्छी चीज़ है ... किस्मत वालों को ही मुहब्बत मिलती है .... कम ही लोगों के आँगन में मुहब्बत का गुज़र होता है ... सब कहते हैं मुहब्बत खुशियाँ देती है ... मुहब्बत जीने की आस देती है ... मुर्दा और बे असर दिल में भी एहसास के शोलों को पलने पर मजबूर करती है ... बरसों से धड़कन की राह में निगाहें बिछाये दिल के दरवाज़े पर मुहब्बत इस कदर धड़कती है की वो नशे में चूर हो कर मुहब्बत की बाँहों के घेरों में जीने के सपने बुनने लगता है ... मुहब्बत हर निगाह को उम्मीद और इस रंग भरी दुनिया से लुत्फ़ अन्दोज़ होने का मौका देती है ... हर होंट को इक न बुझने वाली प्यास देती है ... सब कहते हैं मुहब्बत ऐसी होती है ,मुहब्बत वैसी होती है ... मुहब्बत में ये होता है ..मुहब्बत में वो होता है ... मैं भी मानता था ... दिल भी उस जानिब कभी कभी जाता था ... सोचता था काश मुझे भी ऐसा ही कुछ हो जाता ... पर करियर ने पों में बीदियाँ डाल दी थी मैं चाह कर भी उस जानिब क़दम बढ़ने के बारे में नही सोच सकता था ... ज़िन्दगी की गाड़ी उसी रफ़्तार के साथ कुछ सांसों के दम पर आगे बढती जा रही थी ... आज भी रफ़्तार में है ... लेकिन वो फलसफा मुहब्बत ऐसी होती है मुहब्बत ऐसी होती है ... अब में इस से राज़ी नही हूँ ... मैं नही मानता इसे ... मान भी लेता हूँ ...दिल के मजबूर करने पर ...मगर फिर वही दिल कहता है ...नही ...ऐसा नही है ... मेरा दोस्त भी , साथी भी उसे मैं समझता था ...शायद वो भी कुछ ऐसा ही रिश्ता रखता था ... हाँ ..हंसने का आदि था ... हर वक़्त बोलना ... इक दोसरे को बोलने पर मजबूर करना आदत थी उसकी ... माहोल भी कुछ अच्छा ही लगता था उस के होने से शायद सिर्फ़ मुझे पर नही यहाँ तो बहुत सारे लोग थे ... पर अब शायद कुछ बदल गया था ... मैं सोच करता था शायद ज़िन्दगी ने उसे हर वो चीज़ दी है जिस की चाहत उस ने की है मगर नही वो तो अजीब तूफ़ान अपने दिल में पाले हुए था ... बात बात में निकली थी उस दिन वो बात ... हां पहली बार शायद मैं ने उस के चेहरे पर ऐसा असर देखा था ... हाँ ग़म में में डूबा कुछ अजीब सा लग रहा था ... पोछने पर बताया था ... हाँ मुहब्बत थी उसे भी ....किसी से ... सब से ज्यादा ...अपने आप से भी ... मगर उस मुहब्बत का नाम आते ही चेहरे की रौशनी ख़तम हो गई थी उस की ... रास्ते बदल गए थे दोनों दिलों के .... लेकिन सड़क पर लगे तमाम दरख्तों की शकेन उसे दिल की रहगुज़र से जुड़ी थी ... वो चाँद उसे नही मिल सका था ... मैं ने बहुत करीब से देखा था उस की आँखों में उथल पथल कर रहे आन्सो के कतरों को ... कब पानी की इक बूँद बन कर रुखसारों से होते होए ढलक जाए अंदाजा नही लगाया जा सकता था ... दिलासा भी काम नही आया ... कुछ देर इधर उधर की बातों से ध्यान को उस चेहरे से हटाया था ...उस के आंसू बहने से बचे थे ...लेकिन उस दिन मैं ने मुहब्बत मुहब्बत के फलसफे को झुठलाना चाहा था ... इक चेहरा जिस को मैं ने सिर्फ़ हँसते हुए देखा था ... उस ने झगडा भी किया पर आंसू या दर्द हो उस की आंखों ऐसा कभी नही हुआ था ... मैं सोच रहा था अगर कोई चीज़ ऐसी है जो हंसने के आदि शख्श को भी आंसुओं में डूबने पर मजबूर कर सकती है तो फिर ऐसी मुहब्बत को खैरबाद .... नही होनी चाहिए ऐसी मुहब्बत जो किसी मुस्कुराते चेहरे की हँसी चीन ले ... मुहब्बत ऐसी होती है मुहब्बत वैसी होती है एतेबार करने का दिल नही करता ... जो खुशी, हँसी,और जीने की तमन्ना चीन कर ग़म ,दर्द ,आंसू ,तन्हाई और ज़िन्दगी में कुछ करने का अजम भी चीन ले ऐसी हर मुहब्बत को बाय बाय ... मैं नही मानता मुहब्बत ऐसी होती है मुहब्बत वैसी होती है .... हाँ मानता था ...पर ... अब नही ... किओं की देखा है मैं ने ऐसा कुछ ... जो मुझे इस से रोक रहा है .........
Friday, 17 July 2009
एहसास की ताक़त ....
तुम में ज़रूर कोई बसा है ... हाँ तुम ने ज़रूर किसी से धोका खाया है ... बताओ न उस का क्या नाम था ... उस ने तुम्हें छोड़ किओं दिया ... अब वो कहाँ है ... वो ... अरे रुको भी या बोलते ही रहो गे ...तुम किस के बारे में कह रहे हो ... ऐसी कोई बात नही मैं ने किसी से धोका नही खाया ... मेरा कोई कभी था ही नही जो मुझे छोड़ कर जाता ... अच्छा अब ज़्यादा होशियार मत बनो और बता दो वो अभी कहाँ होगी ... कोई नही है मैं ने कहा ना ... अच्छा तो फिर ऐसे दर्द में डूबी नज्में और ग़ज़लें कैसे लिखते हो ... कोई नही मान सकता की तुम ने किसी से प्यार में धोका नही खाया है ...समझे ...बताओ या ना बताओ ... अरे सुनो बेकार की बातें मत करो ... क्या ऐसी कवितायें प्यार में धोका खाने के बाद ही लिखी जा सकती हैं ... क्या मैं सिर्फ़ महसूस कर के नही लिख सकता ...कुछ टूटे फूटे शब्दों को इक तार में जोड़ना सिर्फ़ प्यार के बाद ही होसकता है क्या ... मैं प्यार नही किया है पर मैं ने महसूस किया है ज़रूर ... हाँ वो मेरा दोस्त भी था ...भाई और साथी भी ...मैं ने उस की हालत देखी है ... रात जब पूरी दिल्ली सोती थी उस की सिस्किओं से आँख खुल जाती थी ...कभी उस की हँसी जगा देती थी ...कितनी देर तक वो बातें करता था ... हमेशा हंसने और हँसाने वाला मेरा दोस्त जब किसी रात रोता तो मुझे इस प्यार के बारे में कुछ न कुछ जानने को ज़रूर मिल जाता था .... जुदाई , फुरक़त और तन्हाई मैं ने बहुत नज़दीक से देखी है वही सब हादसे जब आँखों से गुज़रते हैं तो कुछ शब्दों की कुछ मालाएं बुन डालता हूँ ... तुम बार बार यही कहते हो की मुझ में कोई है ... हाँ है ... मेरा दिल ... जो हर दर्द को महसूस करने का आदि बन चुका है ... किसी के आंखों में आंसू या दिल में तड़प देख कर उसे अपने अन्दर उतारने का ... हाँ इसी वजह से मैं इस तरह की चीजें लिखने की कोशिश करता हूँ ...समझे ...अहसास में वो ताक़त है जो कुछ भी करवा सकता है ... हाँ कोई भी कुछ भी लिख सकता है ... दिल के अन्दर महसूस करने की शक्ति होनी चाहिए ....
Thursday, 16 July 2009
दिल कहता था चल उस से मिल ....
मैं याद तुझे ना करता पर दिल पर मेरा ज़ोर ना था
दो आंसू आँख से टपके थे और सामने तेरा चेहरा था
मैं तेरी क़सम पूरी करता ,बरसात ने पर वो काम किया
दो बूँदें बदन से लिपटी थी और सामने तेरा चेहरा था
मैं खुश था साहिल पर आकर मैं था और तन्हाई थी
इक हुस्न ने ली वो अंगडाई और सामने तेरा चेहरा था
वो हुस्न भी कुछ अलबेला था और मौसम का क्या हाल कहूं
दिल कहता था चल उस से मिल और सामने तेरा चेहरा था
Wednesday, 15 July 2009
Friday, 10 July 2009
शाम की दहलीज़ पर...
फिर ४ जुलाई की शाम आई थी , हाँ इस बार कुछ मुख्तलिफ थी , मैं तनहा था , अकेला उस वीराने में बने इक सुनसान घर में ... किसी आवाज़ का कोई गुज़र न था , चिडयों की चेह्चेहाहत कभी कभी तारीकी की दबीज़ चादरों में लिपटे रात के सन्नाटों को चीरती हुई मेरे घर के कोने में शोर मचा जाती थी ... रौशनी के नाम पर फ़क़त इक दिया था , टिमटिमाता हुआ ... कभी कभी जुगनुओं का कोई झुंड आता और अंधेरे घर में रौशनी के चाँद टुकड़े बिखेर कर चला जाता , आँखें दूर तक उन के चमकते अक्स देख कर उन का पीछा करतीं , दिल चाहता दौड़ कर बुला लें , मगर लाहसिल , वो देर तक न ठहरे थे न ठहेरने वाले थे , आख़िर मुफ्त में कितनी रौशनी लुटा पाते वो भी ... गाँव से दूर बाग़ में बना मेरा आशियाना मेरी तन्हैओं से आबाद था ...
उफ़ कितनी जानलेवा थी वो तन्हाई ... बिज्लिओं की गडगडाहट ने कान के परदे सुन कर दिए थे ...रोशनदान से बारिश की कुछ बूँदें अन्दर आ रही थी , शायद बाहर बारिश शुरू हो गई थी , हवा तेज़ हो चुकी थी , बारिश की बौछारें तेज़ हवा के साथ घर के अन्दर क़दम रखने लगी थी ... घर के इर्द गिर्द लगे हुए आम और इमाल्तास के दरख्तों ने अपने पत्ते ख़ुद से जुदा कने शुरू कर दिए थे , हवा में तेज़ी बढती जा रही थी ... अकेले घर का दिया भी अब तेज़ हवा से लड़ रहा था , शायद कुछ और जीने की तमन्ना थी उस की ... या फिर शायद मुझे कुछ देर और अपनी रौशनी देने के लिए वो हवा से हाथापाई कर रहा था , शायद कहीं बिजली गिरी थी , यकायक तारीकी में डूबा घर उजाले में नहा गया था , दीवारें जैसे हिल गई थी , कान के परदों से बड़ी देर तक बिजली की बाज़गश्त टकराती रही , अचानक गिरने वाली बिजली ने खौफ को मेरी आंखों का पता बता दिया था , खौफ का साया मेरी आंखों के सामने गर्दिश कर रहा था , मुझे डर तो नही लगता था मगर जाने क्या था उस बिजली में कौफ़ से मेरा बदन काँपने लगा था ... पियास से हलाक सूख गया था ... मैं बेशुध हो कर पास ही पड़ी कुर्सी पर बैठ गया , बारिश अब भी जारी थी , ऐसा लग रहा था जैसे आसमान अपना सारा बार ज़मीन के सीने पर लाड कर ही दम लेगा ... बारिश से लुत्फंदोज़ होने की तमन्ना दिल में बराबर कचोके लगा रही थी , वैसे भी गर्मी की शदीद मार झेल कर बदन जवाब दे चुका था ।
कुछ सोचते हुए मैं भी उठ खड़ा हुआ ... अब में बरामदा और राहदारी से गुज़रता हुआ लान में पहुँच चुका था , बारिश की ठंडी बूँदें मेरे प्यासे बदन के पोर पोर को प्यार से नहला रही थी ... उस की तासीर मेरी रूह को छु रही थी , बड़ी देर तक उस बारिश में भीगता रहा ... शायद जेहन के परदों से कोई याद हो कर गुज़र रही थी ... लान में मौजूद हर चीज़ में कुछ यादें , कुछ बातें इक बिछडे साथी की याद दिला रही थी ... हाँ शायद यही की काश वो नरम वो नाज़ुक बाहों के घेरे आज मेरे बदन से लिपटे होते ! काश वो पास में होते ! शायद हम इस नरम वो नाज़ुक और मस्तानी हवा से बहुत देर तक लुत्फंदोज़ होते रहते ... बारिश अब बहुत धीमी हो चुकी थी , इक्का दुक्का बूँदें अब भी ज़मीन की प्यास बुझाने का काम कर रही थी , आसमान की तरफ़ निगाहें उठाई , कुछ सितारे और कुछ बादलों के बीच से चाँद बाहर आने की कोशिश कर रहा था ... हाँ वाही आधा अधूरा चाँद ...देखते ही दिल वो दिमाग अपने चाँद की तरफ़ दौड़ता चला गया , रोकने की लाख कोशिश की मगर सब बेकार रही ... फिर ख़यालात की टिड्डियाँ मेरी यादों पर हमला आवर हो गईं , इक इक कर के उन के साथ गुज़रे तमाम ज़िन्दगी के हसीं लम्हात , अनमोल पल और तमाम औराकेपरीशां उलटने शुरू कर दिए ।
वो भी जुलाई ही का महीना था ... हाँ शायद तारीख भी यही थी , बारिश भी तो ऐसे ही हो रही थी , नही शायद इस से भी तेज़ थी ...उस दिन तो आसमान जी भर के रोया था , बिजली इक बार नही कई बार गरजी थी , मेरे घर की बेपनाह तारीकिओं को आसमानी बिज्लिओं की चमक ने कई बार उजाले मुफ्त बांटे थे ... मगर ... वो रात कितनी सुहानी थी ... शायद तुम थे इस लिए ... कितना प्यारा अहसास था , कितनी बार हम ने उस बिजली का शुक्रिया अदा किया था , हाँ वाही बिजली जो दूर खड़े दो कालिब को यकजान कर के अपने देस चली गई थी ...
तुम्हें याद होगा उस दिन की तन्हाई ने हमें कितनी खुशियाँ दी थी , हाँ दरोदीवार गवाह हैं , वो चाँद भी गवाह है , शायद इसी लिए आज मुझे तनहा देख कर वो भी आँख मचोली खेल रहा था , हाँ कितनी अच्छी और कितनी प्यारी थी वो रात , बारिश और तुम्हारे हसीं कुर्ब ने मेरे सुनसान घर की साड़ी तनहाइओं को मार डाला था ,... आज भी जुलाई की वाही तारीख थी , वाही घर , वाही मौसम , वाही बारिश , मगर आज कुछ भी अच्छा नही लग रहा था , बारिश में भीग कर बदन कप्कपने लगा था , ठंडी हवाएं बदन जला रही थी , हाँ शायद तुम नही थे इस लिए ... आसमान पर चाँद निकला था मगर मेरा चाँद न मालूम देस में जा बसा था .....
Tuesday, 7 July 2009
आख़िर हम में ऐसा क्या था?
दुनिया जाने किओं हम से जलती थी ...आख़िर हम में ऐसा क्या था? हम में कौन सी खराबी थी ? क्या हमारा इक दोसरे से बातें करना ...क्या हमारा इक दूसरे के साथ हँसना ... ये ठीक नही था ..या क्या उस की प्यारी चाहतें ... जो मेरे साथ रहती थीं ...क्या उस का प्यार भरा लहजा ...यही सब को तकलीफ देता था ...या ये की वो लड़की थी ... दुनिया किस वजह से हम से जलती थी नही मालूम ...मैं नही जानता ... पर ...कितना दुःख होता है दुनिया की खोखली सोच पर ... दुनिया वालों के ग़लत जेहन पर ...क्या हम दोनों के बीच कुछ चल रहा था ...हरगिज़ नही ...हो ही नही सकता था ...आख़िर दुनिया वाले ये किओं भूल जाते हैं की संसार में इक लड़के और इक लड़की के बीच सिर्फ़ आशिक , माशूक या महबूब और महबूबा का ही रिश्ता नही होता ... प्यार , इश्क मोहब्बत से बड़ा भी इक रिश्ता होता है ... हाँ उस में ये साड़ी चीजें मौजूद होती हैं ..क्या दोस्ती का रिश्ता ऐसा ही नही है ....
Sunday, 5 July 2009
दुल्हन जैसी लगती थी
इक लड़की थी अलबेली सी
हां मस्तानी अठखेली सी
प्यार भरा चेहरा था उसका
आंखें थी शर्मीली सी
बालों में घटाएं थी जैसे
उड़ती थी और बरसती थीं
खुशबू बदन से फूटती थी
जैसे फूल चमेली सी
चाल में उसकी जाने क्या था
आंखें पीछा करती थी
गली से मेरी गुजरती थी
दुनिया जान छिड़कती थी
हम भी देखा करते थे
पाने की दुआएं करते थे
हसरत थी उससे मिलने की
कुछ कहने की कुछ सुनने की
हर रोज उसी दरवाजे से
हम उसको देखा करते थे
था दिल में जो प्यार छुपा
कहने से उससे डरते थे
इक वक्त हुआ देखा न उसे
शायद अब वो न निकलती थी
इक रोज नजर थी उस पर पड़ी
उफ क्या लगती थी क्या दिखती थी
कान में झुमका, मांग में अफशां
दुल्हन जैसी लगती थी
Saturday, 4 July 2009
यादों की कुर्चियाँ
समंदर से आती लहरों के बीच ..साहिल की रेत पर ...सूखे खुजूर के पेड़ के नीचे बैठ कर भूरी आंखों ...काली जुल्फों वाला शहजादा ...पुरनम आंखों ...घम्ज़दा दिल के साथ ...ऐसा लगता था जैसे बीते दिनों की यादें ...टूटे सपनों और बिखरे खुवाबों की कुर्चियों को अपनी पलकों से चुनने की ..नाकाम कोशिश कर रहा था ...
Friday, 3 July 2009
चाँद की रौशनी में नहाया न कर
ऐ सनम संगदिल दिल जलाया न कर
गम की सुइयां यहाँ पर चुभाया न कर
प्यार दिल में नही रूह में है बसा
तू मेरे इश्क को आजमाया न कर
मेरी आंखों में सपने हैं तेरे सजे
मेरी आंखों से नीदें चुराया न कर
सारे जुगनू बदन से लिपट जायें गे
चाँद की रौशनी में नहाया न कर
चाह कर भी तुझे हम मना न सकें
रूठ कर के कभी दूर जाया न कर