Pages

Saturday, 30 January 2010

...यतीम हो जाएँगी


दिल तो करता ही
कि तुम्हारी
सियाह ज़ुल्फों तले
सारे सपने
तमाम ख़्वाब
हर आरज़ू और
सारी चाहतें रख कर
सो जाएं
मगर फिर
ख़्याल आता है कि
अगर तुम ने भी
औरों की तरह
इन्हें सहारा ना दिया तो
रूह साथ छोड़ देगी
और फिर
ये सारी मासूम आरज़ुएं
यतीम हो जाएंगी

Wednesday, 20 January 2010

वो यादें...

एक लम्बे वक्त से सुबह उठ कर देखता हूं, दो कबूतरों का जोड़ा मेरे कमरे के बाहर लगे पेड़ पर आ कर बैठता है, उस पर लटकी गागर से प्यास बुझाता है, दो चार बूंदें एक दूसरे के परों पर डालते हैं और फिर उड़ जाते हैं...ये रोज़ का खेल है, जैसे उनकी आदत सी हो गई थी...इस बीच मैंने उन्हें बहुत क़रीब से देखा था...उन्हें इठकेलियां करते हुए एक दूसरे को छेड़ते हुए...हां ये भी महसूस किया था कि उनमें से एक कबूतर हमेशा रूठता था और दूसरा उसे अकसर मना लिया करता था, वह उससे ऐसे मुंह फेर कर बैठ जाता था जैसे अब उससे कभी बात ही नहीं करेगा, मगर फिर उसकी इक मुहब्बत भरी नज़र दोनों की नाराज़गी ख़त्म कर देती थी...गले मिलते, बातें करते, छेड़ते और फिर उड़ जाते...इस रूठने मनाने को देख कर मन में एक अजीब सी खुशी महसूस होती थी...सोचता था कितना अच्छा रिश्ता है...कितना प्यार है दोनों के बीच...मगर ये सोच भी मेरे दिमाग के कोने में जन्म लेने लगी थी कि कहीं ऐसा ना हो कि किसी रोज़ इसका रूठना दोनों के रिश्तों में तलख़ियां ना पैदा कर दे और फिर वह किसी मनाने वाला के लिए रोने पर मजबूर हो...बहुत दिनों से दोनों नज़र नहीं आए थे...सोचता था कहीं दूर घूमने निकल गए हों मगर फिर एक दिन सुबह उठा तो देखता हूं वही रूठने वाला कबूतर अकेला पेड़ की टहनियों पर बैठा है... दूसरा कबूतर कहीं नज़र नहीं आ रहा है... और वह तन्हा बैठा आंसू बहा रहा है...क्योंकि शायद अब उसे उन इठखेलियों में मज़ा आने लगा था....

Sunday, 10 January 2010

जैसे मां बच्चे को सीने से लगा लाई हो


अब के फिर जाग के रातों की ख़नक देखी है
कितनी सुंदर है वो एहसास की मूरत की तरह
जैसे पाज़ेब किसी ने कहीं छनकाई हो
जैसे मूरत कोई रस्ते पे निकल आई हो
जैसे गुलनाज़ कोई टब से नहा कर निकले
जैसे खुश्बू लिए बाद-ए-सबा आई हो
जैसे जंगल में कोई राग नया छेड़े हो
जैसे बदमस्त कोई साज़ नया छेड़े हो
जैसे कुछ मोर कहीं नाच में मस्त रहें
जैसे कोयल ने कहीं कूक बजाई हो
जैसे दिलदार की पलकों में कोई ख़्वाब पले
जैसे मासूम सी मूरत मेरे घर आई
ऐसे चलती है वो छुप-छुप के सभी से अक्सर
जैसे दोशीज़ा कोई यार से मिल आई हो
चांद भी उसके सदा साथ चला करता है
जैसे बचपन से क़सम उसने यही खाई हो
सब गुनाहों को ये ऐसे छुपा लेती है
जैसे मां बच्चे को सीने से लगा लाई हो

Friday, 8 January 2010

सर्द रातों में फटी चादर...


...जब ठंड ने जवां ख़ून को सर्द कर दिया था...शराब का सहारा लेकर गर्मी हासिल करने की कोशिश की जा रही थी...पूरा घर बिजली के कुमकुमों, सुरेले साज़ों और मस्त धुनों पर थिरकती जवानियों से पटा हुआ था...उस वक्त गेट पर बैठा बूढ़ा दरबान तेज़ हवाओं से लड़ रही अपनी फटी चादर में खुद को छुपाने की नाकाम कोशिश कर रहा था...

Sunday, 3 January 2010

मुझे मंज़िलों का पता नहीं मेरा कारवां कहीं और है


मेरी हसरतें मेरे साथ हैं मेरी आरज़ू कहीं और है
मुझे रास्ता मेरा मिल गया मेरी मंज़िलें कहीं और हैं

यहां कोई दर्द ना ग़म कोई नई आरज़ू नया जोश है
मेरी ज़िंदगी मेरे साथ चल मेरी धड़कनें कहीं और हैं

मेरी मान मेरे यार तू मुझे रोक ना बीच मोड़ पर
मुझे मंज़िलों का पता नहीं मेरा कारवां कहीं और है

मुझे मत सुना ये कहावतें मेरे हौसलों को ना तोड़ यूं
मेरे साथ मां की दुआएं हैं मेरे ख़्वाब भी कहीं और हैं