एक लम्बे वक्त से सुबह उठ कर देखता हूं, दो कबूतरों का जोड़ा मेरे कमरे के बाहर लगे पेड़ पर आ कर बैठता है, उस पर लटकी गागर से प्यास बुझाता है, दो चार बूंदें एक दूसरे के परों पर डालते हैं और फिर उड़ जाते हैं...ये रोज़ का खेल है, जैसे उनकी आदत सी हो गई थी...इस बीच मैंने उन्हें बहुत क़रीब से देखा था...उन्हें इठकेलियां करते हुए एक दूसरे को छेड़ते हुए...हां ये भी महसूस किया था कि उनमें से एक कबूतर हमेशा रूठता था और दूसरा उसे अकसर मना लिया करता था, वह उससे ऐसे मुंह फेर कर बैठ जाता था जैसे अब उससे कभी बात ही नहीं करेगा, मगर फिर उसकी इक मुहब्बत भरी नज़र दोनों की नाराज़गी ख़त्म कर देती थी...गले मिलते, बातें करते, छेड़ते और फिर उड़ जाते...इस रूठने मनाने को देख कर मन में एक अजीब सी खुशी महसूस होती थी...सोचता था कितना अच्छा रिश्ता है...कितना प्यार है दोनों के बीच...मगर ये सोच भी मेरे दिमाग के कोने में जन्म लेने लगी थी कि कहीं ऐसा ना हो कि किसी रोज़ इसका रूठना दोनों के रिश्तों में तलख़ियां ना पैदा कर दे और फिर वह किसी मनाने वाला के लिए रोने पर मजबूर हो...बहुत दिनों से दोनों नज़र नहीं आए थे...सोचता था कहीं दूर घूमने निकल गए हों मगर फिर एक दिन सुबह उठा तो देखता हूं वही रूठने वाला कबूतर अकेला पेड़ की टहनियों पर बैठा है... दूसरा कबूतर कहीं नज़र नहीं आ रहा है... और वह तन्हा बैठा आंसू बहा रहा है...क्योंकि शायद अब उसे उन इठखेलियों में मज़ा आने लगा था....