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Wednesday, 11 November 2009

ख़ून में सने सपने

हर तरफ शोर मचा था, कहीं चीखें थीं तो कहीं रोना, एक आफत एक तूफान आ गया था ज़िन्दगी की गली में, तलवारें मियान से बाहर थीं, किरपान निकले थे, तिरशूल लहरा रहे थे, मंदिर की घंटियां, मस्जिद से उठने वाली सदाएं, गुरूदवारे की आवाज़ें सब तलवारों, किरपानों और तिर्शूलों के टकराने की संगीत में कहीं गुम हो गए थे, मुरदा लाशों पर ज़िन्दा लाशें दौड़ रही थीं, उड़ती धूल को लहू की बूंदों से शान्त किया जा रहा था, धरती पर पहला क़दम रखने वाले मुस्तकबिल की सांसें घुट रहीं थीं, उसे मां की छातियों से दूर फैंक दिया गया था, कोई उस मासूम को उठाने की कोशिश कर रहा था मगर पिंडलियों पर होने वाले वार ने उसे निढ़ाल कर दिया, नन्हा बच्चा तड़पता हुआ बेबस मां के पास गिरता है, उस का एक हाथ उसकी नंगी छातियों था मगर वह अपनी इज़्जत अपनी बाहों में छुपा रही थी, दूध की प्यास से सूखे होंटों पर लहू निचोड़ा जा रहा था और इंसानियत ख़ून के आंसू रो रही थी...

Sunday, 8 November 2009

ख़्वाबों की शहज़ादी

ख़्वाब और जवानी एक दूसरे से जुडी हुई चीज़ें हैं। बच्पन में ख़ूबसूरत परियों की कहानियां सुन कर सोना जितना अच्छा लगता है जवानी में हसीनों की दास्तान उतना ही मज़ा देती है। एक उम्र के बाद सपनें देखना और उनकी ताबीरें सोचना दिमाग को बहुत पसंद आता है, खास कर नींद की आगोश में जाने से पहले किसी से मिलन की चाहत ज़ोर पकड़ लेती है और फिर चांद के साथ रतजगे का सिलसिला शुरू हो जाता है। लगन और चाहत कामयाब होती है फिर किसी ना किसी चांद का दीदार हो ही जाता है।
महबूब को चांद बतलाने की रस्म बहुत पुरानी है मगर जब भी ख़्वाबों में किसी हसीना से मुलाकात होती है तो लोग उसे चांद सा ही बतलाते हैं। इन दिनों किसी की दुआएं काम आ रहीं हैं या फिर बद्दुआवों का असर था जो हर रात नींद आने से पहले ही पलकों पर कोई अपने नरम हाथ रख कर बैठ जाता है, शायद किसी अपने की (बद) दुआ का असर था, मगर कुछ भी हो इन ख़्वाबों ने मुझे कुछ कहने पर मजबूर कर दिया था, मुझे ड़र तो लग रहा कि उसकी ताबीर कहीं ग़लत ना हो जाए इसलिए किसी से कहने से दिल डरता था मगर क्या करें कुछ लोगों से रिश्ता ही कुछ ऐसा होता है कि मजबूरन कहना पड़ जाता है। मैं ने भी वही किया और दिल पर जब्र करते हुऐ कह दिया, वह भी ऐसे निकले की हर बात पूछने लगे। वह दिखने में कैसी थी, उसकी आंखें कैसी थीं, उसकी ज़ुल्फों का क्या हाल था, उसके लब के जलवे भी बता दो, उसके जिस्म की तराश कैसी थी और कई तरह के सवालों की बौछार कर दी। महबूब की तारीफ करना किस को पसंद नहीं होता। मेरे लिए तो अभी ख़्वाबों में आने वाली शहज़ादी ही मेरी महबूबा थी, वह ख़्वाब ही थी पर मुझे उसकी बातें करते हुए अच्छा लग रहा था जैसे मैं उसे देख रहां हूं और खुद उसी से उसकी तारीफें कर रहा हूं मैं एक एक करके उसके बारे में बताने लगा। उसका दिलकश हुस्न मैं कभी नहीं भूल सकता। गुलाबी चेहरा इस तरह खिला हुआ था जैसे फूल की कली हो, मैं सपने में ही उससे ये पूछने पर मजबूर था कि क्या तुम कोई जादू हो, खुश्बू हो या फिर कोई अपसरा हो, आंखें तो ऐसी थीं जैसे मयकदा(शराबख़ना) हो, उन नज़रों पर नज़र पड़ते ही मदहोशी का आलम तारी हो गया था मगर ख़्वाबों में ही मैं उसकी आंखों की सारी शराब पी लेने की नाकाम कोशिश कर रहा था, उनके झुकने, उठने और झुककर उठने की हर अदा जानलेवा थी, उसके लबों की सुर्खी ऐसी थी जैसे गुलाब की पंखुड़ी हो, पूरा चेहरा किसी कंवल, या कली की तरह शादाब था या फिर महताब की तरह रौशन था। ज़ुल्फों ने तो जान ही ले ली थी, सियाह रात जैसी ज़ुल्फें कोई काली बला लग रहीं थीं, उनके बिखरने और सिमटने पर ही दुनिया के हालात बदल जाते थे, जिस्म तर्शा हुआ था, दिलकश इतना की ऐतबार ही नहीं हो रहा था, कभी उसके होने पर यकीन आजाता तो कभी एक गुमान होने का शुब्हा हो जाता, आंखें मल मल के देखता था ताकि ख़्वाब होने का गुमान ना रह जाए (ये सब सपने की हालत में था), कितना बताता, उस परी सूरत की दास्तान तो बहुत लंबी थी। तारीफें थी कि ख़त्म ही नहीं हो रही थीं किसी और पोस्ट में उस हसीना पर चर्चा ज़रूर करूंगा और उस वक्त उसकी मुकम्मल तसवीर खींचने की पूरी कोशिश होगी। अभी तो यही ख़्याल सता रहा है कि क्या ये सपना सच होगा या फिर ...

Monday, 2 November 2009

शाहरूख़ - सपनों के सफ़र का कामयाब मुसाफिर


एक शख़्स जिस का चेहरा हज़ारों के ख़्वाबों की तस्वीर, एक ऐसा अदाकार जिस का ज़माना दीवाना, एक ऐसा इंसान जिसके रोने का अंदाज़ लाखों हसीनाओं की नींदें उड़ा दे, एक ऐसा दीवाना जिसकी चाहत हर किसी का सपना, उसकी हर अदा, हर अंदाज़, हर नख़रा और हर अहसास सभी के तंहाईयों का साथी है।

आंखों में हजारों सपने, चेहरे पर लहराता हौसला, मंजिल तक पहुंचने का जोश और कड़ी मेहनतों के बल बूते पर दुनिया में अपना नाम पैदा करने का ख़्वाब लिए जब शाहरूख खान ने मुम्बई के माया नगरी में क़दम रखा तो शायद उस ने यह कभी ना सोचा होगा की वह देखते देखते बॉलीवुड का बादशाह बन कर किंग खान के नाम से जाना जाने लगेगा और दुनिया उसकी एक झलक पाने के लिए बेताब होगी। मगर शायद किसमत शाहरूख पर कुछ ज़्यादा ही मेहरबान थी या फिर ये उस अदाकार की सलाहियतों का कमाल था कि कामियाबी हर मोड़ पर उसका रास्ता देखती नज़र आई। कुछ भी हो मगर शाहरूख के सुहाने फिल्मी सफर ने जहां उनके चाहने वालों की भीड़ पैदा कर दी वहीं उन के सपनों को भी बहुत हद तक सच साबित कर दिया।

दीवाना के राजा सहाय से लेकर बिल्लू का साहिर खान बनने में शाहरूख की अपनी उम्र के तकरीबन 17 साल लग गए। इस बीच शाहरूख चमतकार करते हुऐ राजू बन गया जेन्टिल मैन से दिल आशना है के करन के रूप में छाए रहे। माया मेमसाब और किंग अंकल के रूप में दिखते दिखते हार कर जीतने वाले को बाज़ीगर कहते हैं की गुहार लगा कर कब बाज़ीगर बन गया अंदाज़ा ही ना हो सका लेकिन शाहरूख अपने कैरियर की बलंदियों तक पहुंचने में जरूर कामियाब होगए। बाज़ीगर बनकर फिल्मफेयर बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड हासिल करने वाले विकी मल्होत्रा ने जब डर में राहुल मेहरा बन कर अपनी इमेज बदली तो फिर पूरी फिल्म में कि...किरन के लिए भागते रहने वाले शाहरूख को बेस्ट विलेन के अवॉर्ड के लिए चुन लिया गया। ये उनकी बेपनाह सलाहियतों का ही जौहर था कि इश्क आशिकी के रंगों और प्यार मोहब्बत की दास्तोनों को अपनी अदा देने वाला शाहरूख जब एक विलेन के रूप में नज़र आया तो लोगों ने उसे सराहने में कोई कमी ना छोड़ी।


शाहरूख़ की जिंदगी कभी हां कभी ना के अंजाम से गुज़री और फिर क्या था करन अर्जुन का ज़माना दीवाना होगया। गुड्डू ओह डार्लिंग कहते कहते आशिकों को समझा गया कि दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे।

राम जाने इंग्लिश बाबू देसी मेम की चाहत में ऐसा फंसा की आर्मी ने उसे दुशमन दुनिया का बदरू बना दिया। कोयला में मिली परेशानियों ने यसबॉस का रास्ता दिखाया और शाहरूख अर्जुन सागर बन कर परदेस को चला गया। गंगा ने जब दिल तो पागल है का फलसफा समझाया तो शाहरूख़ डुबलीकेट दिलसे कुछ कुछ होता है कहता हुआ बॉलीवुड़ का बादशाह बन गया। फिर भी दिल है हिंदुस्तानी के जोश ने हर दिल जो प्यार करेगा के राहुल को मुहब्बतें के राज आरयन के रूप में शाहरूख़ को बिग बी के सामने खड़ा कर दिया। वन 2 का 4 की गिनती सीखते सीखते अशोका कभी खुशी कभी गम की मार झेलते हुए हम तुम्हारे हैं सनम का ऐलान करते हुए देवदास बन गया।

चलते चलते कल हो न हो भी सामने आगई। मैं हूं ना ने वीर-ज़ारा के रिश्तों को स्वदेश में मशहूर करदिया। कभी अलविदा न कहना की पहेली बुझाने वाला डॉन चक दे इण्डिया के नगमें सुना गया। ओम शांति ओम का पाठ करने वाले शाहरूख की दुआ कबूल हुई और फिर क्या था रब ने बना दी जोड़ी। मगर पिक्चर तो अभी बाक़ी है मेरे दोस्त बिल्लू का साहिर इतनी जलदी दम लेना वाला नहीं उसे तो दुनिया को ये भी बताना है कि माई नेम इज़ ख़ान, और ख़ान मतलब शाहरुख़ खान जिसका आज जन्म दिवस है।

अदाकारी के मैदान में नए नए तरीके इजाद करने वाला शाहरूख आज के अदाकारों का रोल माडल है। उसने सिर्फ अदाकारी ही नही की बल्कि अपुन बोला तू मेरी लैला वो बोली फेंकता है साला जैसे हिट गानों को अपनी आवाज़ भी दी। फिल्मों को प्रोड्यूस भी किया मगर जब ख़ून के हर क़तरे में अदाकारी का रंग भरा हो तो कोई और चीज़ कैसे उस पर हावी हो सकती है। यही हुआ शाहरूख के साथ भी जितनी कामयाबी और जितना नाम उनकी अदाकारी ने उन्हें दिया और किसी चीज़ से उतना हासिल ना हो सका। खैर इतना तो सच है कि जो भी चाहूं वो मैं पाऊं ज़िंदगी में जीत जाऊं, चाँद तारे तोड़ लाऊं सारी दुनिया पे मैं छाऊं, यार तू भी सुन ज़रा आरज़ू मेरी है क्या, मान जा ए ख़ुदा इतनी है दुआ मैं बन जाऊं सबसे बड़ा, मेरे पीछे मेरे आगे हाथ जोड़ें दुनिया वाले, शान से रहूं सदा मुझ पर लोग हों फ़िदा बस इतना सा ख्वाब है ...की शाहरूख़ की दुआ ख़ुदा ने कबूल करली है।

Wednesday, 28 October 2009

करवट

उम्र के एक पड़ाव पर आकर ज़िन्दगी ज़ोर ज़ोर से सासें लेने लगती है...शायद थक चुकी होती है या बहुत ज़्यादा शरारतें उसकी सांसें तोडने लगती हैं या फिर यह वक्त का तक़ाज़ा होता है... कुछ भी हो मगर यहां से ज़िन्दगी अपने रंग बदलने लगती है, कुछ कड़वाहटों का सामना होता है तो कुछ हसीन ख़्वाब रात की तारीकियों में मन को गुदगुदाते भी हैं... बच्पन की सारी शौख़ी और सारी चंचलता कहीं दूर चली जाती है, मासूम से चेहरे पर हमेशा फैली रहने वाली हंसी पंदरह सालों का लम्बा सफर तय करने में कहीं खो जाती है और उस की जगह आंखों में रंगीन शामों की धुंध और मुस्तकबिल की धुंधली तसवीर समा जाती है...हां शायद बचपन के बाद आने वाले लम्हे कुछ इसी तरह करवट लेते हैं।

Thursday, 8 October 2009

गरीबों का लेखक- मुंशी प्रेम चंद

मुंशी प्रेम चंद की पुण्यतिथि पर खास

अगर हिनदुसतान को ताज महल जैसी हसीन इमारत पर फ़ख़्र है, कुतुब मीनार की बलंदियों पर नाज़ है और लाल किला की मजबूती पर उस की छाती चौड़ी हो जाती है तो वहीं रबिन्द्र नाथ टैगोर की कविताओं, बुल्बुले हिन्द सरोजनी नाइडो की कुर्बानियों और मुंशी प्रेम चंद जैसे महान लेखक के कारनामों को याद करके उसकी आंखों में चमक आ जाती है।
एक गरीब कलर्क की कुटिया में आंखें खोलने वाले धनपत राय ने शायद अपने ख़्वाबों में भी ना सोचा हो कि वह एक दिन हिनदुस्तान का नाम रोशन करेगा और अदब की दुनिया में प्रेम चंद बन कर दूसरों की रहनुमाई करेगा। 8-10 साल तक फारसी की पढ़ाई करने के बाद जब अंग्रेज़ी पढ़ाई का सिलसिला शुरू हुआ 15 साल की उम्र में शादी हो गई और एक साल के बाद पिता का देहान्ता हो गया। यानी एक दरवाज़े से खुशियों ने आना शुरू किया तो दुनिया के ग़मों ने खिड़कियों पर पहरा ड़ाल दिया।
15 साल के कमज़ोर कंधों पर ज़िम्मेदारियों का बोझ आ पड़ा और फिर लड़कों को टियुशन पढ़ा कर घर का बोझ संभला, शिक्षा विभाग में नौकरी मिली औऱ इसी दौरान प्रेम चंद ग्रेजुएट हो गए।
छोटी उम्र में कहानियों से प्रेम ने प्रेम चंद को कहानियां लिखने का हौसला बख़्शा और 1901 में ज़माना नाम की पत्रिका में कहानी लिखकर अपना सफर शुरू किया। छोटी छोटी कहानियों से शुरू होने वाला ये सफर अफसानों से गुज़रता हुआ नाविलों की सूरत इख़तियार कर गया और प्रेम चंद की कलम ने रूठी रानी, कृष्णा, वरदान, प्रतिज्ञा से चलते चलते प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमी, कर्मभूमी, गोदान और गबन जैसी नाविलें लिख कर दुनिया को चौंका दिया।
इस में कोइ शक नहीं गंगा जमुनी तहज़ीब की सरज़मीन बनारस से 6 मील दूर पर बसे लम्ही गांव में एक मामूली किसान के घर 31 जुलाई 1880 में जन्म लेने वाले प्रेम चंद जिन्दगी भर गांव और दिहातों में बसने वाले, झोंपडों में रातें बसर करने वालों और खेत की धूल को अपने पसीने से तर कर के रोटी खाने वालों की आवाज़ रहे।
प्रेम चंद ने जिन्दगी भर कहानियों और उपन्यासों को अपना हमराह बनाए रखा और हर कहानी में ज़मीन और खास कर हिनदुस्तान से जुड़ी परेशानियों और गरीब जनता के मुद्दों को उठाया। हकीकत पसंदी के इस अंदाज़ ने मुंशी प्रेम चंद को वो मक़बूलियत दी कि पूरा हिनदुस्तान उनका दीवाना बन गया।
चिलचिलाती धूप में ज़ख़्मी परिंदे की तरह सफर करने के हौसले प्रेम चंद को बहुत ऊंचाईयों तक पहुंचा दिया। मगर जिंदगी की तमाम खुशियों और मध्यम वर्ग के हर दुख़ दर्द को अलफ़ाज़ के रंगों में ढालने वाला कलम का ये सिपाही 8 अकटूबर 1936 में हज़ारों आंखों को आंसुओं में तर करता हुआ एक ना मालूम देस की तरफ सिधार गया


Monday, 5 October 2009

शब्दों का जादूगर-मजरूह सुल्तानपुरी

अगर हिन्दुस्तानी सिनेमा को राजकपूर की अदाकारी ने दीवाना बनाया था, रफी के सुरों ने नचाया था, नौशाद की धुनों ने एक नई दुनिया में खो जाने पर मजबूर किया था, साहिर के लिखे गानों नें जिन्दगी की तल्ख़ सच्चाईयों से सामना कराया था तो मजरूह सुलतानपूरी के गीतों ने कभी आंखों से बरसात करवाई तो कभी उदास आंखों में खुशियों की लहर दौड़ा दी।
जिन्दगी के हर फलसफा और जिन्दगी के हर रंग रूप को करीब चार दहाईयों तक अपने गानों में पेश करने वाले मजरूह सुलतानपूरी का जन्म एक पुलिस वाले के घर हुआ था जिसने उन्हें आला तालीम दिलाई, उन्हें एक महान आदमी के रूप में देखने के ख्वाब पाले। मगर शायरी से मुहब्बत करने वाले मजरूह ने डाक्टरी के पेशे को छोड़ कर शायरी की दुनिया में कदम रख दिया। यहां जो मुहब्बतें उनको मिलीं उस ने इन्हें ये मैदान ना छोडने पर मजबूर कर दिया। और फिर शायरी का ये सफर पूरे शान से शुरू हो गया। जब तवज्जह का मरकज़ शायरी बनी तो जिगर मुरादाबादी जैसे अज़ीम शायर उनके उस्ताद के रूप में सामने आए। इस दौरान मुशायरों में आने जाने का सिलसिला चलता रहा।
1945 में भी ऐसे ही एक मुशायरे में शिरकत के लिए मजरूह मुम्बई गए। मुम्बई में होने वाले मुशायरे उस वक्त खास अहमियत इस वजह से रखते थे क्योंकि वहां फिल्मी दुनिया की कई बडी हस्तियां तशरीफ रखती थी और कई दफा किसी शायर का कलाम पसंद आ जाता तो उस की जिन्दगी बदल ही जाती थी। यही हुआ मजरूह के साथ भी, उस मुशायरे में फिल्मसाज़ और हिदायतकार ए आर कारदार को मजरूह ने बहुत मुतअस्सिर किया जिस के चलते उन्होंने मजरूह को अपनी फिल्म में गाना लिखने की पेशकश की मगर मजरूह ने इनकार कर दिया। लेकिन जिगर मुरादाबादी के समझाने के बाद उन्हों ने गाने लिखने के लिए अपनी रज़ामनदी ज़ाहिर कर दी। संगीतकार नौशाद ने उन्हें एक धुन सुनाई और उस पर गाना लिखने को कहा, उस पर मजरूह की कलम ने जो गाना लिखा उस का मुखडा था कि उनके गेसू बिखरे बादल आए झूम के। मजरूह के लिखने का ये वह अंदाज़ था जिसने नौशाद जैसे अज़ीम संगीतकार को अपना दीवाना बना लिया था।
1946 में फिल्म शाहजहां में जब पहली बार उन्हें अपने हुनर का जलवा दिखाने का मौका मिला तो वो संगीत प्रेमियों के दिलों पर पूरी तरह छा गए। इस फिल्म में मजरूह ने कई तरह के गाने लिखे। कर लीजिए चल कर मेरी जन्नत के नजारे और जब दिल ही टूट गया तो जी कर ही क्या करेंगे जैसे गानों ने इस फिल्म को कामियाबी की मंजिलों तक पहुंचाया और खुद मजरूह को भी एक नई पहचान दे गए।
1949 में उन्हें एक बडा ब्रेक फिल्म अंदाज़ में मिला और उस फिल्म में नौशाद की धुनों पर जिस तरह के गाने मजरूह ने लिखे वह दिल के अंदर घर कर जाने वाले थे। हम आज कहीं दिल खो बैठे, कोई मेरे दिल में खुशी बन के आया, झूम झूम के नाचो आज, टूटे ना टूटे साथ हमारा, उठाए जा उनके सितम और डर ना मुहब्बत कर ले जैसे गानों में मजरूह ने जिस बेबाक अंदाज़ से जिन्दगी और मुहब्बत को पेश किया वह काबिले तारीफ था। इस फिल्म के बाद मजरूह के पास काम की कमी नही रही और वह सारे संगीतकारों के चहेते बन गए।
मजरूह सुलतानपूरी ने हर दौर के महान संगीतकारों के साथ काम किया। नौशाद,ओ पी नय्यर और आर डी बर्मन से लेकर जतिन ललित और ए आर रहमान जैसे संगीतकारों की धुनों पर मजरूह के गानों ने खूब जलवे बिखेरे।
शाहजहां, अंदाज, आरज़ू, आर पार, पेईंग गेस्ट, नौ दो गयारह, दिल्ली का ठग, काला पानी, सुजाता, बाम्बे का बाबू, बात एक रात की, ममता, तीसरी मंज़िल, अभिमान, यादों की बारात, हम किसी से कम नहीं, कयामत से कयामत तक, जो जीता वही सिकंदर और खामोशी जैसी यादगार फिल्मों में मजरूह ने के एल सहगल से राकुमार और आमिर खान जैसे सुपरस्टारों के लिए गाने लिखें है।
मजरूह ने हर तरह के गाने लिखे। तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है, रात कली इक ख्वाब में आई, ओ मेरे दिल के चैन, चलो सजना जहां तक घटा चले, चुरा लिया है तुम ने जो दिल को, छोड दो आंचल ज़माना क्या कहे गा, आजा पिया तोहे प्यार दूं, अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी, बचना ऐ हसीनों और बाहों के दरमियां जैसे गानों में अगर देखा जाए तो मुहब्बत के हर पल का मज़ा रखा है। बेचैनी, तन्हाई, तड़प, मिलन और चंचलता का पूरा रंग इन गानों में देखने को मिलता है। यही नहीं पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा और रूक जाना नहीं तू कहीं हार के जैसे गाने भी मजरूह की कलम से ही निकले हुऐ शाहकार हैं जिसने नौजवानों के अंदर हौसले को जन्म दिया है। एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल जैसे गानों से मजरूह की महान्ता का बडे अच्छे अंदाज़ से पता लगाया जा सकता है।
पूरी दुनिया ने मजरूह की सलाहियतों का लोहा माना था। उन पर अवॉर्डों की बारिश हुई थी। दादा साहब फालके अवॉर्ड तक उनकी झूली में आ चुके हैं। इसके अलावा और कई अवॉर्डों से उन्हें सम्मानित किया गया। फिल्म दोस्ती के सुपर हिट गीत चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे के लिए उन्हें फिल्मफेयर अवॉर्ड भी दिया गया था।
चार दहाईयों तक अपनी शायरी और अपनी गीतों से संगीत प्रेमियों के दिलों पर दस्तक देने वाले मजरूह ने करीब तीन हज़ार से ज्यादा गाने लिखे।

Thursday, 1 October 2009

कहां है गांधी के सपनों का हिन्दुस्तान?

एक ऐसा इंसान जिसने हिन्दुस्तान को एक महान देश बनाने के लिए अपने जान की कुर्बानी दी आज उस का जन्म दिन मनाया जा रहा है मगर उसके सपनों का भारत जिस के लिए उसने कुर्बानी दी उसका वजूद खोता नज़र आ रहा।
गांधी एक ऐसा नाम है जिसने दुनिया में सिर्फ मोहनचंद के रूप में ही ज़िन्दगी नही गुज़ारी बल्कि उस ने पूरी दुनिया में हिन्दुसतान और उस की तहज़ीब को पेश किया। अपने उसूलों और सिद्धान्तों से गांधी ने पूरी दुनिया को अपना एहतराम करने पर मजबूर कर दिया। दुनिया ने यहां तक माना था कि गांधी के उसूल कामियाबी में मददगार हैं। एक अच्छा इंसान होने के साथ साथ गरीबों और समाज के हर तबके से बराबर जुड़े रहने वाले मोहनदास करमचंद गांधी ने पूरे हिन्दुसतान को साथ लेकर हिन्दुसतान की आज़ादी के सपने देखे। हिन्दु, मुसिलम, सिख और ईसाई के अलावा पूरे हिन्दुसतान को साथ लेकर चलने वाले बापू को अपना मकसद हासिल करने की राह में हज़ारों मुशकिलें आईं। आज़ादी के लिए बार-बार जेलों में जिंदगी गुज़ारने पर मजबूर होना पड़ा। पर बापू ने तो आज़ाद हिन्दुसतान का सपना देखा था। उसे महान भारत का ताज देना चाहा था। सियासत के गलत नजरियों से पाक कराने का सपना देखा था। तमाम तरह की गंदगियों से साफ भारत का ख्वाब देखा था। लेकिन वो जिंदगी ही क्या जिस में आदमी को सब कुछ हासिल हो जाए। कहा जाता है कि अकसर आदमी जो चाहता है नहीं मिलता, यही हुआ था गांधी जी के साथ भी उन्हों ने देश तो आज़ाद करवा दिया मगर इस के लिए जो सपने उन्होंने देखे थे वह पूरे ना हो सके। उनके वह सिद्धांत जो हिन्दुसतान को ऊंचाईयों तक ले जाने वाले थे वह भारत का बुरा चाहने वालों की आंखों में खटकने लगे और इस का नतीजा ये हुआ कि मुल्क आज़ाद होने के एक साल बाद उनका कत्ल कर दिया गया।
गांधी जी के देहान्त के बाद इस बात पर तो काफी शोर मचा की देश उन्ही के सिद्धानतों पर चलेगा मगर ऐसा हुआ नहीं। गांधी जी की सारी कुरबानियां तकरीबन बेकार ही साबित हुईं, उन्हों ने मुल्क को ज़रूर आज़ाद करवा दिया, यहां की जनता को आज़ादी की सुबह ज़रूर दिखला दी मगर जिस भारत की आरज़ू थी शायद वह आज तक नहीं बन सका।
इस के क्या असबाब हैं? अगर इस सवाल का जवाब तलाश करने की कोशिश की जाए तो शायद ये अंदाज़ा लगाना ज़्यादा मुशकिल न होगा कि आज़ादी के बाद लोगों ने लिखने और बोलने के लिए तो गांधी के उसोलों को इस्तेमाल किया मगर जब कुछ करने की बात आई तो अपने उसूल बना ड़ाले, अपने हिसाब से कौम को रास्ता दिखाने की कोशिश करने लगे और इसी सूरत में फंस कर वह भारत को एक ऐसी तारीख़ दे गए जिस में लोगों का ख़ून बहा, दुलहनों की मांग सूनी हुई, सुहागनों की चूड़ियां टूटीं, बहनों की राखी का सहारा टूटा, माओं की गोद सूनी हुई और बच्चे बाप के कंधों से महरूम हुए। तारीख़ गवाह है कि बेबुनियाद उसोल ने हिन्दुस्तान को सोने की चिड़िया से एक खौफनाक सूरतेहाल में तबदील कर दिया।
गांधी जी का तो ये मानना था कि हिन्दुस्तान अगर तलवार के रास्ते को अपनाता है तो हो सकता है उसे फौरन कामियाबी मिल जाए लेकिन इस सूरत में तशद्दुद से भरा भारत मेरे दिल का टुकड़ा नही हो सकता, पूरी दुनिया को रास्ता दिखाने के लिए हिन्दुस्तान का यही मिशन होना चाहिए कि जो बात अख़लाकी तौर पर गलत है वो सियासी तौर पर भी गलत है। मगर आज की सूरतेहाल इस के बिलकुल मुखालिफ है। गांधी और उनके दौर के महान नेताऔं के बाद जिन नेताओं ने जन्म लिया उन्हों ने तलवार के रास्ते से भारत हासिल करने की कोशिश की। क्या सिखों को कत्लेआम इस बात का सबूत नहीं, क्या अयोध्या में हुए बाबरी इंहेदाम के बाद बहने वाले ख़ून इसी बात की गवाही नहीं दे रहे, क्या गुजरात में मोदी और उसके कारकुनों के जरिए ढाए जाने वाले मज़ालिम यही दास्तान नहीं बयान कर रहे। क्या 2003 में अहमदाबाद से लेकर गुजरात के बड़े शहरों की फज़ाओं में कमसिन लड़कियों की चीख़ें और अपनी इज़्ज़त की हिफाज़त के लिए गूंजने वाली सदाऐं इस का सुबूत नहीं हैं। अख़लाक और किरदार की सारी हदों को तोड कर जो माहौल पैदा किया गया था शायद अगर आज गांधी जी भी होते तो ना जीने की दुआऐं करते। आज के इस दौर में अख़लाक वो किरदार सियासी मैदान में कोई माना नहीं रखता।
तकरीबन चार पांच दशक पहले फिल्मी दुनिया में आला ख़ानदान की लडकियां कम ही नज़र आती थी। अकसर वो औरतें जो चकलों और मुजरों पर शाइकीन का दिल लुभाती थी वही बड़े पर्दे पर भी नज़र आती थी। मगर आज वो हालात ख़त्म हो गए, सोचने के अंदाज़ बदल गए, आज हर बड़े बाप की बेटी अदाकारा बनने के ख़्वाब संजोती है। ठीक इसी तरह पहले कौम की ख़िदमत करने के जज़्बे से लोग सियासत में कदम रखते थे। मगर आज लोग अपनी बिज़नेस की दुकान चमकाने के लिए सियासत में आते हैं। उन के यहां अख़लाक की कोई अहमियत है ना किरदार कोई माना रखता है। जिस में उनका फायदा हो वह चीज़ ठीक होती है चाहे उस से तहज़ीब का ख़ून हो या समाज़ की लानत का सामना करना पड़े।
सियासत के ठेकेदारों ने आज सियासत को नया अंदाज़ दे दिया है, जिस का नतीजा साफ देखने को मिल रहा है। हर कोई सहमा हुआ है, ख़ौफ का साया हर किसी की आंख़ों के सामने लहरा रहा है। आज हिन्दुस्तानियों ने ख़ून और लहू के ऐसे मंज़र देख लिए है कि इन के दिल ख़ौफ से कांप रहे हैं। पुरसकून और अमन व अमान से लबरेज़ भारत का सपना देख कर उसे आज़ादी दिलाने की राह में मौत को गले लगाने वाले शहीदों की रूहें आज शर्मसार हो रही हैं।
आज सब कुछ बदल चुका है। जहां गांधी ने अपने आप को समाज के सबसे निचले दरजे के लोगों के लिए वक्फ़ किया वहीं आज के सियासत दान कारपोरेट सेक्टर के बड़े बड़े लोगों के तलवे चाटने पर खुश हैं। जहां गांधी जी हर वक्त लोगों के साथ बगैर सिक्योरिटी के घूमते थे, वहीं आज के भारती नेता 50 से ज्यादा पुलिस वालों को साथ लेकर चलते हैं। जहां गांधी रेल के जनरल डिब्बों में जिंदगी भर सफर करते रहे वहीं आज के नेता एसी से नीचे की सोचते तक नहीं। कुछ लोगों ने इकोनोमी क्लास में सफ़र करने का हौसला तो दिखाया है मगर कब तक यह होगा? शायद पहली और आख़िरी बार चेक करने के लिए सफर कर रहे हैं और इस के बाद दोबारा ऐसी हिम्मत न दिखा सकें। क्योंकि शशि थरूर जैसे पढ़े लिखे और महान नेता जब इकोनमी क्लास को भेड़ बकरियों की क्लास बताऐंगे तो कौन उस में सफर करेगा। सोचना तो यही है कि पांच सितारा होटलों मे जिंदगी गुजारने वाले ये नेता गांधी जी का सपना कैसे पूरा करेंगे।