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Wednesday, 22 February 2012

पागल-दीवाना

दोस्तो बहुत दिनों तक दूर रहने के लिए माफ़ी चाहता हूं, अब लौटा हूं तो कुछ अलग रंग हैं और एक नया एहसास है, कुछ नए तजरूबे हैं, उन्हें आप से बांटने की कोशिश करूंगा। - रज़ी


रोड
पर बना पार पथ पार करते हुए
आज फिर उस जवां अजनबी पर निगाहें पड़ीं
ज़िंदगी के मज़ालिम से हारा हुआ
आज वह चूर सा दिख रहा था
उस के बोसीदा मलबूस से
कुछ अजब तरह की बू आ रही थी
बाल बिखरे हुए, आंखें पुरनम सी थीं
गालों की झुर्रियों में
सुर्ख सा कर्ब अंगड़ाईयां ले रहा था
एक बच्चा उसे कोई पागल समझ कर
चन्द कंकर के तोहफे अता कर रहा था
जाने किस फ़िक्र में उसकी आंखें
पास की उस इमारत को छेदे चली जा रही थीं
जहां पहली दफ़ा उसको देखा था मैं ने
वह कुछ जवानों को समझा रहा था
ख़ैर और शर के, रिश्वत व ज़ुल्म के
मायने व मतलब बता रहा था
चन्द लम्हों के वक़्फे से जब मैं वापस हुआ
मैं ने ये भी सुना
लोग आपस में यूं लबकुशा हो रहे थे

‘’अपना ये बोस भी क्या अजब आदमी है
इस सदी में भी पागल
किस पुरानी सदी की कहानी सिखाने की ज़िद कर रहा है’’
‘’अरे छोड़ो ना यार तुम भी
किस दिवाने की बातें किए जा रहे हो
आओ बाहर चलें, देखें बाज़ार को
आज फिर कुछ मुनाफ़े की उम्मीद है’’