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Thursday 23 September 2010

आवाज़ें आती हैं....



सन्नाटों को चीर कर
आवाज़ें आती हैं
मत ताको नील गगन के चंदा को
मोती की तरह बिखरे सितारों को
देखो वह दूर परबत से लगे
झोंपड़े पर जहां
टिमटिमा रहा है इक दिया
बुढ़िया दुखयारी ठंड़ से
थर थर कांप रही है !

हां, आवाज़ें आती हैं
बारिश की बूंदों के शोर को दफ्न करके
तुम झूम रहे हो
अंबर का अमृत पी कर
वह दोखो,
फूस का छोटा सा इक घर
भीग गया है इन बौछारों से
और दहक़ां का कुंबा
घर से पानी काछ रहा है

सुनो !
बीत गए वह दिन
जब तुम अपने आप में सिमटे होते थे!!!

(दहक़ां : kisan)