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Thursday 27 August 2009

दिल जल्ता है तो जलने दे...

कहते है आवाजें मरती नही हैं आवाज़ें हमेशा जिंदा रहती है, कभी भीगे मुंडेरो तो कभी पानी के झरनों से कुछ मीठी आवाज़ें कानों मे रस घोलती रहती हैं। कुदरत ये तोहफा बस कुछ ही लोगों को देता है। वरना मुहम्मद रफ़ी, मन्ना डे, किशोर कुमार और इन जैसे बड़े गायकों की भीड़ में पहचान बनाना मामूली बात नहीं।

मगर पेशे से एक इन्जीनियर के घर में पैदा होने वाले मुकेश चन्द माथुर के अन्दर वह सलाहियत थी कि वह एक अच्छे सिंगर बन कर उभरें। यही हुआ, कुदरत ने उनके अंदर जो काबलियत दी थी वह लोगों के सामने आई और मुकेश की आवाज का जादू पूरी दुनिया के सर चढ़ कर बोला।

एक अदाकार बनने की हसरत दिल में लिए मुम्बई पहुंचने वाले सुरों के इस बादशाह ने अपना सफर 1941 में शुरू किया।

निर्दोष नामी फिल्म में मुकेश ने अदाकारी करने के साथ साथ गाने भी खुद गाए। उन्होंने सब से पहला गाना दिल ही बुझा हुआ हो तो गाया। इस में कोई शक नहीं कि मुकेश एक सुरीली आवाज के मालिक थे और यही वजह है कि उन के चाहने वाले सिर्फ हिन्दुस्तान ही नही बल्कि उन के गाने अमरिका के संगीत प्रेमियों के दिलों को भी ख़ुश करते रहते हैं।

के एल सहगल से मुतअस्सिर मुकेश ने अपने शरूआती दिनों में उन्ही के अंदाज़ में गाने गाए। मुकेश का सफर तो 1941 से ही शुरू हो गया था मगर एक गायक के रूप में उन्होंने अपना पहला गाना 1945 में फिल्म ‘पहली नजर’ में गाया। उस वक्त के सुपर स्टार माने जाने वाले मोती लाल पर फिल्माया जाने वाला गाना दिल जल्ता है तो जलने दे हिट।

शायद उस वक्त मोती लाल को उनकी मेहनत भी कामयाब होती नज़र आई होगी। क्योंकि वह ही वह जौहरी थे जिन्होंने मुकेश के अंदर छुपी सलाहियत को परखा था और फिर मुम्बई ले आए थे। कहा जाता है मोतीलाल ने मुकेश को अपनी बहन की शादी में गाते हुए सुना था।

के एल सहगल की आवाज़ में गाने वाले मुकेश ने पहली बार 1949 में फिल्म अंदाज से अपनी आवाज़ को अपना अंदाज़ दिया। उस के बाद तो मुकेश की आवाज हर गली हर नुक्कड़ और हर चौराहे पर गूंजने लगी। प्यार छुपा है इतना इस दिल में जितने सागर में मोती और ड़म ड़म ड़िगा ड़िगा जैसे गाने संगीत प्रेमियों के ज़बान पर चलते रहते थे।

फिल्मी दुनिया के बेताज बादशाह रहे राजकपूर का फिल्मी सफर मुकेश के बगैर अधूरा है। मुकेश ने राजकपूर के अकसर फिल्मों के गानों को अपनी मधुर आवाज से सजाया था। 1948 से शुरू होने वाला ये साथ आख़िरी दम तक बाकी रहा।

राजकपूर ने मुकेश के इस दुनिया से चले जाने के बाद मैंने अपनी आवाज़ कहीं खो दी है कह कर इस रिश्ते को पेश भी किया था। ऐसा भी नही था कि मुकेश ने सिर्फ राजकपूर के लिए ही गाने गाये हों बल्कि राजकपूर के साथ होने से पहले ही मुकेश की आवाज फिल्मी दुनिया में मक़बूल हो चुकी थी।

मुकेश के दिल के अरमान अदाकार बनने के थे और यही वजह है कि गायकी में कामयाब होने के बावजूद भी वह अदाकारी करने के शाइक़ थे। और उन्होंने यह किया भी मगर एक के बाद एक तीन फलॉप फिल्मों ने उनके ख्वाब चकनाचूर कर दिये और मुकेश यहूदी फिल्म के गाने में अपनी आवाज दे कर फिर से फिल्मी दुनिया पर छा गए।

मुकेश ने गाने तो हर किस्म के गाये मगर दर्द भरे गीतों की चर्चा मुकेश के गीतों के बिना अधूरी है। उनकी आवाज़ ने दर्द भरे गीतों में जो रंग भरा उसे दुनिया कभी भुला न सकेगी। दर्द का बादशाह कहे जाने वाले मुकेश ने अगर ज़िन्दा हूँ मै इस तरह से, ये मेरा दीवानापन है (फ़िल्म यहुदी से) ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना (फ़िल्म बन्दिनी से) दोस्त दोस्त ना रहा (फ़िल्म सन्गम से) जैसे गानों को अपनी आवाज़ के जरिए दर्द में ड़ुबो दिया तो वही किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार (फ़िल्म अन्दाज़ से) जाने कहाँ गये वो दिन (फ़िल्म मेरा नाम जोकर से) मैंने तेरे लिये ही सात रंग के सपने चुने (फ़िल्म आनन्द से) कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है (फ़िल्म कभी कभी से) चन्चल शीतल निर्मल कोमल (फिल्म सत्यम शिवम सुन्दरम् से) जैसे गाने गा कर प्यार के एहसास को और गहरा करने में कोई कसर ना छोड़ी। यही नहीं मकेश ने अपनी आवाज में मेरा जूता है जापानी (फ़िल्म आवारा से) जैसा गाना गा कर लोगों को सारा गम भूल कर मस्त हो जाने का भी मौका दिया। 14 लोरियां गा कर बच्चों को मीठी नींद सोने का मौका दिया।

दुनिया ने उनकी सलाहियतों का लोहा माना। फिल्म अनाड़ी (1958) के एक गीत के लिए उन्हें फिल्मफेयर अवॉर्ड से नवाज़ा गया। यह एज़ाज़ हासिल करने वाले वह पहले मर्द गायक थे। रजनीगन्धा फ़िल्म में कई बार यूं भी देखा है गाना गाने के लिये उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। इस के अलावा कई और भी पुरुस्कार उन्हें मिले।

सिर्फ 56 साल की उम्र पाने वाले मुकेश ने दुनिया में कई दौर देखे। दुखों को मुंह खोले अपने दरवाजे पर देखा, खुशियों को अपनी अधखुली खिड़कियों से झांकते देखा। आंसुओं को नैनों से बहते देखा तो मुस्कुराहटों को चेहरे पर फैलते देखा।

मगर कोशिश करने के फारमूले को थामे जिंदगी से मिलने वाले हर दर्द, हर आंसू, हर मुस्कान और हर खुशी को अपने दामन में समेटते हुऐ दर्द भरी आवाज़ का ये जादूगर पल दो पल के शायर की तरह हज़ारों चाहने वालों को रोता छोड़ कर दूसरी दुनिया को सिधार गया ...

Wednesday 26 August 2009

छोटू ज़रा चाय लाना....

उर्वशी, लछ्मी और सुचित्रा नाम की तीन अदाकाराओं के घर पर पुलिस ने छापा मार कर वहां से बाल मज़दूरों को आजाद कराया। चर्चाऐं तो ऐसे हो रहीं थी कि ऐसा महसूस हो रहा था मानो जंग ही जीत ली हो। मगर क्या कर सकते हैं कभी कभी तो कोई भला काम होजाता है ऐसे में अगर उस पर भी वाह वाही न बटोरने को मिले तो काभी तकलीफ होगी। मगर क्या सिर्फ तीन लोगों के यहां से कुछ बच्चों को आज़ाद करा देने से बाल मज़दूरी खत्म हो जाएगी इसकी उम्मीद करना ज़रा मुश्किल है। इसकी वजह है और हम नीचे इसी को बयान करने की कोशिश कर रहे हैं।

छोटू ज़रा चाय लाना, अरे छोटू गाड़ी धुल दे साहब बाहर जा रहे हैं, पोछा मार दे छोटू, ज़रा गिलास देना छोटू, छोटू ये सामान निकाल देना, झाड़ू मार दे छोटू … ये वह आम जुम्ले हैं जो हर रोज हर लम्हा कान के परदों से टकराते रहते हैं, कहीं भी जाएं, दोस्तों के साथ चाय की दुकान पर या खाना खाने के लिये होटल, सामान लाने के लिये किराने की दुकान पर या फिर बस में सफर पर।

चाय, खाना, सामान देने वाला और किराया लेने वाला 7-8 साल की उम्र से लेकर 15-16 साल का कोई ना कोई बच्चा ही होता है। आस-पास ऐसे न जाने कितने छोटू और बहादुर हैं जो अपनी ज़िन्दगी गुजारने के लिये अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिये किसी की गुलामी तो किसी की नौकरी करते नज़र आते हैं। उस उम्र में जबकि उन के नाज़ुक हाथों में कलम होना चाहिये उनके नाज़क हाथ झाड़ू लगाने और बरतन धुलने पर मजबूर हैं, जब उनके कंधों पर किताबों का बस्ता होना चाहिये था उस उम्र में वह किसी मालिकन के साथ सब्ज़ी लाने के लिये इस्तेमाल हो रहे हैं। ये वह बच्चे हैं जो खानदान के सब कुछ है, अपने परिवार के माई बाप हैं। ये उस मुल्क की दास्तान है जहां बाल मज़दूरी पर पाबंदी है।

आज़ाद हिन्दुस्तान की ये एक सच्ची तस्वीर हैं। अगर यक़ीन न आए तो अपने आस पास देखिए इन बातों की सच्चाई खु़द-ब-खु़द सामने आजाएगी।

ये एक सच्चाई है कि हिन्दुस्तान जैसे आज़ाद मुल्क में एक अंदाज़ के मुताबिक 1 करोड़ 70 लाख बाल-मजदूर हैं। इसमें से 80 फीसद खेतों और कारखानों में काम करते हैं। बाकी खदानों, चाय बगानों, दुकानों और घरेलू कामों में हैं। इसमें से सबसे ज्यादा बच्चे तालीम से दूर हैं और खतरनाक हालतों में काम करते हैं। मुल्क के 1 करोड़ 70 लाख बाल-मजदूरों में से सिर्फ 15 फीसद को ही मजदूरी से आजादी मिल पायी है।

अगर देखा जाए तो यह चीज़ साफ तौर पर कही जा सकती है कि बच्चा मज़दूरी पर पाबंदी लगने के दो दहाईयां गुज़र जाने के बाद भी हालात वैसे के वैसे बने हुए हैं। शायद आगे भी ये सिल्सिला जारी रहे। क्योंकि जब तक बाल मज़दूरी के पीछे छुपी मजबूरियों को नही जाना जाता उस के खातमे के ख्वाब देखना महज़ जागती आंखों का ख्वाब होगा जिस की कोई हकीकत हो ही नही सकती।

आज भी हिन्दुस्तान के अंदर ऐसे लोगों की एक लंबी तादाद है जिन की आमदनी रोजाना 20 रूपये से भी कम है, गौर कीजिये इस दौर में जब्कि मंहगाई आसमान से बातें कर रही है, हर चीज़ की कीमतों में बेतहाशा इज़फा हो रहा है, 20 रूपये आमदनी वाला आदमी किस तरह खाएगा और अपने परिवार को खिलाएगा?

बाल मज़दूरी को खत्म करने के लिए कोशिश तो होनी ज़रूरी है मगर ये धयान रखना उस से ज्यादा जरूरी है कि आप जिस बच्चे को आजाद करा रहे हो वह कल क्या खाएगा या वह परिवार जो उस की कमाई से जीता है उस की हालत क्या होगी? क्या हिन्दुस्तान इस के लिए तय्यार है? अगर हां तो शायद कुछ अच्छी ख़बर आगे कुछ सालों में देखने को मिले। याद रहे कि भूके पेट पढ़ने में मन नहीं लगता है और मिड डे मील से सिर्फ बच्चे का पेट भरता है उस के मजबूर मां बाप और भाई बहनों का नहीं जो उसे उस की जान से ज्यादा प्यारे हैं।

Sunday 23 August 2009

बन के परवाना तेरी आग में जलना है हमें

ज़िन्दगी मिल कि तेरे साथ ही चलना है हमें
पी के हर जाम तेरे साथ संभलना है हमें
***
बन के शमा शबेतारीक में जलती ही रहो
बन के परवाना तेरी आग में जलना है हमें
***
जागती आँखें जो थक जाएँ तो ये कह देना
चलो सो जाओ कि अब ख्वाबों में मिलना है हमें
***
चैन लेने नही देती है मिलन की वो हसीं याद
फिर से बाहों में तेरी चैन से सोना है हमें
***
चाहे जिस मोङ पे ले जाऐ कहानी अपनी
मेरा वादा है तेरे साथ ही जीना है हमें
***
अपनी तुगयानी पे इतरा ना ऐ बहते दरया
बनके तूफान तेरी आग़ोश में पलना है हमें
***
शबेतारीक(काली रात)-तुगयानी(तेज और ऊंची लहरें)-आगोश(बांह)
शबेतारीक(काली रात)-तुगयानी :(तेज़ ओर ऊँची लहरें )-आगोश(बांह)

Friday 21 August 2009

मेरी रुसवाई तेरे काम आए

मेरी रुसवाई तेरे काम आए
ज़िन्दगी कुछ तो मेरे काम आए
कुछ दिनों से यही चाहत है
उसका पैगाम मेरे नाम आए
उसको मिलते रहे खुशियों के सुराग
हर सिसकता हुआ गम मेरे नाम आए
मुद्दतें बीत गयी बिछडे हुए
वस्ल की फिर कोई रात आए

Monday 17 August 2009

आँचल से खेलती लडकियां

कितनी अजीब होती हैं ये लड़कियां ...कितना अच्छा लगता है उन्हें सपनों में जीना ...बचपन ही से किसी नामालूम और अनजान से चेहरे पर फ़िदा हो जाती हैं , सपनों में आने वाले घोङसवार को अपना शहजादा बना कर हर लम्हा हर पल उस के नाम की मालाएं जब्ती हैं ... उस के साथ जीने के ख्वाब बुनती हैं ...अपना घर और लान की खोब्सूरती को सोच कर खुश होती हैं ...उस अनजान शहजादे की बाहों और पनाहों का सहारा ढूंङती है, उन की चूडियाँ खनकती हैं उन्ही के लिए और जब पायल बजती है तो भी उसी की खातिर ...आती जाती सांसें उसी का नाम लेकर सफर तै करती हैं ... और जब वो किसी और के आँचल में आराम करने लगता है तो टूटे दिल के हर टुकड़े को पल्लू में समेटने की नाकाम कोशिश ज़िन्दगी भर करती रहती हैं ...ख़ुद किए गुनाहों की सज़ा भुगतती हैं ...शायद नादान होती हैं या कमअक्ल ये तो नही मालूम मगर हाँ ... छोटीउम्र से सपनों की दुनिया में खो जाना उन की फितरत में शामिल होता है ...साहिल के बहुत करीब बैठ कर बचपन ही से रेत के घरौंदे बनाने लगती हैं ...इतना भी ख्याल नही रखती हैं की कब कोई सरकश लहर आजाये भरोसा नही ... कब उन के अरमानों के इस शीश महल को अपने थपेडों से इस तरह झिंझोड़ दे कि उस कि बुनियादें तक हिल जाएँ ...मगर नहीं वो वही काम करती हैं और फिर तन्हाई का दर्द आंखों में लिए ज़िन्दगी भर किसी अनजान से शहजादे के साए से प्यार करने का जुर्म करने पर पछताती हैं ...साहिल पर लहरों से बेपरवाह होकर ख्वाबों का महल बनने कि खता पर अफसुर्दा होती हैं मगर उस तो वक्त तो उन का कुछ नही हो सकता सिवा इस के के कि वो समंदर के साहिल पर जाएँ और अपना आँचल अपनी उँगलियों में लपेटें और फ़िर खोल कर उन्हें उडाने की बेकार कोशिश करें ...

Saturday 15 August 2009

तू क्यों इतनी देर से मुझसे मिला

ज़िन्दगी में दर्द बस मुझ से मिला
उसको खुशियाँ, हर सितम मुझसे मिला

पा लिया था वक्त ने इक रास्ता
जब क़दम थकने लगे तो हमसफ़र मुझसे मिला

इक हरफ भी याद न था प्यार का
वो भी ऐसे मोड़ पर मुझसे मिला

आँख के दरया का हर कतरा उछल कर
चश्म से छलका जब वो मुझसे मिला

न कोई शिकवा था न कोई गिला इस बात का
तू क्यों इतनी देर से मुझसे मिला

इक अजब सी सादगी हम में भी है
सब कुबूल नाम पर उसके जो मुझसे मिला