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Wednesday 22 July 2009

कितना अच्छा लगता है

अब हर रात निकलने वाला चाँद
मुझे दिखाता है इक अकस
नीद से बोझल पलकोँ के साथ
जब मैँ चाँद की तरफ देखता हूँ
इक अनजाने चेहरे का अकस
उभर कर आता है मेरे सामने
दिमाग पर जोर देता हूँ
कौन है?
किस का अक्स है ?
मुझे ही क्यों नजर आता है
अकेली रात में
जब नीद आँखों के परदे से
दूर बहुत दूर चली जाए
कितना अच्छा लगता है
तारों के भीड़ में तनहा
चमकते चाँद देखते रहना
क्यों
शायद इस वजह से कि
उस में नजर आने वाला अक्स
आँखों के रासते दिल तक
पहुँच चुका है
हर घडी
हर लम्हा
हर पल
वो साया बन कर मेरे
साथ रहता है
हाँ शायद इसी लिऐ
जब नीद आँखों के परदे से
दूर बहुत दूर चली जाए
सारी दुनिया नीद की आगोश
में पनाह ले ले
कितना अच्छा लगता है
तारों के भीड़ में तनहा
चमकते चाँद देखते रहना

6 comments:

Sonalika said...

बहुत खूबसूरत
लेकिन रजी साहब ये रातों को जागना
यूं चांद में अक्‍स ढूंढना
अच्‍छी बात नहीं
लोगों को फिर शक होगा तुम पर
बहुत अच्‍छा लिखा

ओम आर्य said...

ek behatarin rachana padhawane keliye ......bahut bahut shukriya .....atisundar ......aise hi likhate rahe

M VERMA said...

कितना अच्छा लगता है
तारों के भीड़ में तनहा
चमकते चाँद देखते रहना ।
वाकई बहुत सुन्दर लगता है.
रचना बहुत सुन्दर

निर्मला कपिला said...

कितना अच्छा लगता है
तारों के भीड़ में तनहा
चमकते चाँद देखते रहना ।
वाकई बहुत सुन्दर लगता है.
बहुत सुन्दर ये सोनलिका जी क्या कह रही है जरा गौर फर्मायें बेटाजी

vandana gupta said...

bahut khi khoobsoorat abhivyakti........eil ke jazbaton ko ukerti rachna

विनोद कुमार पांडेय said...

sach kaha aapne ..taron ke jhund me raat ko chand ko niharana bada hi achcha lagata hai..

aapne kavita ke maddhaym se sundar bhav piroya..

badhiya laga..badhayi..